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अल्यास झील के दर्शन-यात्रा वृतान्त

        नैसर्गिक अल्यास झील के दर्शन  - राहुल देव लरजे  The lake Alyas          वर्ष 2014-15 में स्थानीय हिमाचली अख़बारों म...

Friday, May 20, 2016

लाम्भरी जोत की ट्रैकिंग-यात्रा वृत्तांत

                   लाम्भरी जोत की यात्रा 
The Incredible location of Lambhri (Thanks Google earth) 

मैं अपने घुमक्कड़ स्वभाव के चलते हर वर्ष ग्रीष्मकाल में किसी न किसी स्थानीय स्थल पर भ्रमण के लिए अवश्य निकलता हूँ। माह मई वर्ष 2016 में मैंने बंजार घूमने का मूड बना रखा था और गुप छुप अपने एक चचेरे भाई  के साथ सकरनी पर्वत से भी ऊपर लाम्भरी जोत के दर्शन हेतू जाने के लिए उत्सुक था। एक दिन गलती से मैंने वट्सऐप के किसी एक ग्रुप में इस सन्दर्भ  में एक अपडेट चस्पाँ कर दी कि मैं उक्त जोत के ऐक्सकर्शन पर जा रहा हूँ। फिर क्या था,कुछ इस ग्रुप के मित्र भी वहां चलने को तैयार हो गए। 

इस में सर्वप्रथम श्री नवांग ग्याल्छन् बोद्ध जी जो कि हिमाचल प्रदेश सरकार के विद्युत विभाग से रिटायर मुलाज़िम हैं और जिन के साथ मैं पूर्व में खीर गंगा ट्रैकिंग कर चुका था,ने तुरन्त हामी भर दी। बोद्ध साहब कई कठिन ऐक्सकर्शन जैसे कि किन्नर कैलाश,श्री खण्ड,कुगती जोत से मणि-महेश कर चुके हैं।उन्होंने अपने एक अन्य जांबाज़ मित्र श्री तोप सिंह जी को इस ट्रेकिंग में चलने को तैयार  किया।  श्री तोप  सिंह जी हिमाचल सरकार  वन विभाग से रिटायर मुलाज़िम हैं और खरदुंगला जैसे ऊँचे दर्रे पर पिछली सदी के 90 के दशक में बाइकिंग और साइकलिंग कर लोहा मना चुके हैं।उन का नाम लिम्का बुक ऑफ़ रिकार्ड  में भी शुमार है। साथ ही लाहुल के ही एक उच्च पद से सेवानिवृत्त  वरिष्ठ उम्र के बैंक अधिकारी श्री रामनाथ खिंगोपा जी भी इस पावन पावन यात्रा में चलने को तैयार  हुए। यह भी अपने जांबाज़ स्वभाव के चलते हर तरह के साहसिक गतिविधियों में रूचि रखते हैं।यह तीनो शख्स सीनियर सिटिज़न थे। मेरी ही उम्र के एक अन्य शख्स श्री टशी वांगचुक  उर्फ़ सुशील जी जो इन्कम  टैक्स विभाग में कार्यरत हैं और बेहद अच्छे फोटोग्राफर और प्रकृति प्रेमी हैं,वह भी लाम्भरी की यात्रा को अंतिम समय में तैयार हुए। इस तरह हम कुल 5 लोगों ने दिनांक 07.05.2016 को लाम्भरी यात्रा पर जाने का निर्णय किया। 

Our purposed trekking route
इस से पहले हमने वट्सऐप के जरिए इस जगह की लोकेशन ,ट्रेकिंग के सुलभ रास्ते आदि के बारे में खूब परिचर्चा की थी और  हर मेंबर से ज्यादा से ज्यादा जानकारी हासिल करने को कहा। श्री रामनाथ जी का ससुराल बंजार तहसील में पड़ता है अत: उन्होंने अपने स्थानीय जान-पहचान के लोगों के जरिए रास्ते का पता लगाया। उन्होंने बंजार तहसील के ग्याघी से सारथि और हिडब नामक गाँव के ट्रैकिंग रुट से से लाम्भरी जोत जाने का समर्थन किया। उन के अनुसार हिडब  से करीब 3 घंटे की चढ़ाई के उपरान्त लाम्भरी पहुंचा जा सकता है। वही श्री तोप सिंह जी ने अपने वन विभाग के स्थानीय करीबियों से पता लगाया कि ग्याघी की बजाए गुशैणी घाटी के सरची और जामणा गांव से प्रस्थान करना ठीक रहेगा। उन के अनुसार सरची तक गाड़ी में पहुंचा जा सकता है और वहाँ से भी 3 घंटे की हल्की टेढ़े चढ़ाई वालो ट्रेकिंग रुट  से लाम्भरी जाना होगा। जैसा कि दोनों रास्तों से एक ही दिन में जाना और आना था इसलिए शाम को हमें या ग्याघी में या साई रोपा में विश्राम करना आवश्यक दिख रहा था।इस तरह हमारे पास ट्रैक रुट के दो विकल्प उपलब्ध थे।

इस तरह काफी विचार विमर्श के उपरान्त हम ने सरची वाले रुट से ही ट्रेकिंग पे जाने की ठान ली। दो दिन पूर्व रामनाथ जी ने ऐन. जी. बोध साहब से वट्सऐप पर ही लॉजिस्टक सामान ले जाने की पुष्टि कर ली। इस से पहले रामनाथ जी के हिदायत अनुसार किसी लोकल गाइड को ले जाना ज़रूरी समझा गया क्यूंकि गलत रास्ते से जाने से  समय और श्रम अधिक लग सकता था। वैसे भी हम सभी इस रुट से अपरिचित थे और प्रथम बार वहां जा रहे थे। यह भी पता चला कि सरची जो कि साई रोपा से लगभग 20 किलोमीटर दूर था,को एक कच्ची सड़क थी जिस में अपनी व्यक्तिगत गाड़ी को ले जाने की बजाय किसी बोलेरो या पिकअप गाडी को हायर करना उचित था।  इस तरह एक गाइड और महिन्द्रा  ज़ायलो टैक्सी का प्रबन्ध श्री रामनाथ जी ने समय पर करवा दिया। 

मैं एक दिन पूर्व अपनी बुलेट बाईक से दिनांक 06.05.2016 को कुल्लू पहुंचा और वहां  ढालपुर में रथ मैदान के साथ लगते रांझणा टी स्टाल में बोद्ध साहब और तोप सिंह जी से अगले दिन की यात्रा से रिलेटेड कुछ  बिंदुओं पर  संक्षेप में वार्तालाप किया और अगले दिन सुबह ठीक 6 बजे मैंने ढालपुर मिलने का वादा किए अपने घर पतलीकूहल को प्रस्थान किया। मोबाइल फोन के ज़रिए अन्य सभी सदस्यों को भी अपने अपने नजदीक वाले सड़कों के पोइंट पर सुबह तैयार रहने का आग्रेह किया गया।

अगले दिन प्रात:ठीक समय पर में ढालपुर पहुंचा और एन. जी.बोद्ध साहब ने अपने घर मुझे सुबह की चाय के लिए आमन्त्रित किया।मैंने अपनी बाइक उन के यहां पार्क करनी थी।बौद्ध साहब नीली जीन,काले हल्के जैकेट ,मफलर और कुल्लुवी टोपी पहने बिल्कुल फिट लग रहे थे।हम ने पड़ोस में सुशील को भी तुरन्त तैयार हो कर आने को कहा।वह भी नहा-धो कर नीचे पार्किंग में पहुंचा।सुशील अपने काऊ-बोय हैट और आर्मी कलर केजुअल आऊट-फिट में बेहद चुस्त-दुरुस्त लग रहे थे।
Swift car of N.G. Bodh sahb
यहां से ठीक 6:30 बजे बौद्ध साहब की स्विफ्ट गाड़ी में हमने प्रस्थान किया।आगे गांधी नगर में तोप सिंह जी भी बैग ले कर सड़क में हमारा इंतेज़ार करते हुए मिले।वह भी हरे रंग के पी-कैप और पीले रंग के विंड और वाटर प्रूफ स्पेशल जैकेट में जबरदस्त फिट नज़र आ रहे थे।आगे शास्त्री नगर में हमारे पांचवे वरिष्ठ साथी श्री रामनाथ जी भी कपूर पेट्रोल पम्प के पास मिले।वे तो चार्ल्स शोभराज वाली केप में नीले ज़िन्ज़ में बेहद फिट और युवा लग रहे थे।यहां कार में पेट्रोल भरवा कर हम लोगों ने आगे को कूच किया।

Forest Guest House at Sai Ropa
कार में एक-दूसरे से गप-शप मारते हम करीब 8 बजे साँई रोपा पहुंचे।यहां से आगे हम ने टेक्सी बुक करा रखी थी और कार को यहीं किसी सुरक्षित जगह में पार्क कर के हम ने आगे प्रस्थान करना था।तोप सिंह जी के सलाह पर हम जंगलात महकमे के कार्यालय जो कि सड़क के दायें ओर ऊपर बनी है,वहां अपनी कार ले गए।हम ने वापसी में रात्री-विश्राम भी यहीं फारेस्ट महकमे के गेस्ट-हाउस में सोच रखी थी किन्तु वहां ग्रेट नेशनल पार्क देखने आए पर्यटकों का तांता लगा हुआ था।इसलिए वहां के केयर-टेकर ने अपनी  अस्मर्थतता बताई।यहां मैंने एक सेकिण्ड ऑप्शन रखा था।आगे कुछ दूरी पर तीर्थन नदी के साथ लगते मुंगला नामक जगह में मेरे रिश्तेदारों का एक नया होम-स्टे था,इसलिए अब मैंने वहां चलने को कहा।यहां जायलो टेक्सी का उस्ताद भी हमारा इंतज़ार कर रहा था।

मुंगला में बहुत कोजी भगवती होम-स्टे में सबसे पहले हमने बोद्ध साहब की कार शेड में पार्क की और मैंने अपने रिश्तेदार यज्ञ चन्द को चाय और ब्रेक फ़ास्ट के लिए कहा।दो कमरे खुलवा कर हम ने अपने कुछ सामान वहां रख दिए।होम-स्टे में साफ़-सफाई बहुत अच्छी थी। ब्रेक-फ़ास्ट में ब्रेड आमलेट का मज़ा ले कर अब हम आगे जाने को तैयार हुए।यहां सब ने एक समान राशि एकत्रित कर मुझे सौंप दिया ताकि खाने-पीने,रहने के अतिरिक्त टैक्सी के खर्चे को बराबर वहन किया जा सके।

Near Mungla
इस समय सुबह के 9 बज चुके थे।तीर्थन नदी की वैली बेहद खूबसूरत थी।स्वच्छ पानी के खड में मशहूर ट्राऊट मछली के लिए यह वैली मशहूर है।गुशैणी कस्बे से कुछ किलोमीटर पीछे एक नगलाड़ी नामक जगह जहां एक पुलिया पार बाएं दिशा को थी, के पास के डायवर्शन से हम सरची वाले सड़क को मुड़ गए।आगे सड़क कच्ची थी किन्तु ठीक थी और हम कई मोड़ों से होते हुए ऊंचाई की और बढ़ रहे थे। तीर्थन घाटी के दूरस्थ गांव पहाड़ों के ऊपर बेहद खूबसूरत दिख रहे थे। राह में एक बड़ा पहाड़ी गाँव आया जिस में एक विभिन्न पहाड़ी शेली का एक भव्य मन्दिर बना हुआ था।इस गाँव का नाम बांदल  था और यह मन्दिर दुर्गा माता का था।इस तरह कई और खूबसूरत गाँव जैसे कि तिलहाड  और बाड़ीगढ़ भी रास्ते में आये। 
Just a miles before Sarchi
हम ने सब से अच्छी समझदारी यह की थी कि अपनी कार की बजाए हेवी पावर जीप जायलो ले आये थे क्योंकि सड़क न सिर्फ कच्ची और चढ़ाई वाली थी बल्कि कई जगह बड़े खड्डों में पानी की वजह से दल-दल भी थ। जायलो का ड्राइवर ऐसे सड़क का महारथी लग रहा था और बड़ी सुलभता से गाड़ी चला रहा था।नीचे को देखने पर बस जंगल और खाईयां थी और ड्राइविंग में ज़रा सी चूक होने पर गाड़ी पहाड़ी में पलट सकती थी।

Rustic beauty of  Sarchi 
इस तरह कई टेढ़े-मेढ़े मोड़ों को गाड़ी से रौंदते हम सरची में पहुंचे। यह एक बेहद खूबसूरत पहाड़ी गाँव था,अधिकतर लकड़ियों से बने पुरानी शेली के मकान थे।गांव का वातावरण बेहद सोम्य लग रहा था और चारों ओर सादगी का आलम था।हमें पता चला कि कुछ ही दिनों पहले सरची तक बस का ट्रायल हुआ है यानि यह गाँव अभी तक तीर्थन घाटी के दुर्गम गांवों की लिस्ट में शुमार था। लोग पूर्व में सड़क बनने से पहले पगडंडियों के सहारे ही नीचे गुशैणी और बंजार को जाते थे। बाजार नाम से बस एक चाय की दुकान वहां थी। इस दुकान में हम ने नमकीन,चिप्स,पाई,टाफियां वगेरह खरीद लीं।अब हम सड़क के अंतिम छोर जामणा नामक गांव में पहुंचे और जीप के ड्राइवर को शाम को वहीं हमारा इन्तेज़ार करने का आग्रह कर के अब हम पैदल आगे को चल पड़े।इस समय सुबह के 11:30 बज चुके थे।

In side Jamna
Jamna
जामणा गांव सरची से मात्र डेढ किलोमीटर ऊपर है।यह बेहद दुर्गम गांव सुबह बहुत जहीन लग रहा था। बाग-बगीचों और खेतों में गेहूं की हरयाली लेह-लहा रही थी। घर बेहद ही साधारण लग रहे थे।गांव के बच्चे हमें उत्सुकता से निहार रहे थे। ऊंचाई की वजह से मौसम कुछ खराब सा लग रहा था।ऊपर लाम्भरी की ऊंचाइयों को हम ने अंदाज़े से निहारा।वहां घटाएं बेहद डरावनी दिख रही थी और बारिश का अन्देशा सा लग रहा था।
Semi-modern dwellings at Jamala

Guiding the guide
यहां हमें लोकल गाइड मोहर सिंह नामक एक युवा हमारा इन्तेज़ार करता हुआ मिला।ठेठ सेराजी स्टाइल वाली हिंदी में वह हम से बतिया रहा था। यह जाँबाज़ लड़का साधारण कपड़ों और जूतों में बहुत सादगी लिए था।जब हम ने उस से लाम्भरी की दूरी पूछी तो उस ने जामणा से 20 किलोमीटर बताया और ठीक रफ़्तार में मात्र 2 घण्टे में ऊपर जोत पर पहुंचने के समय लगने के बारे अवगत किया ।इतनी दूरी सुन कर मैं थोड़ा सकपका गया क्योंकि वापिस आना-जाने में बेहद थकान पूर्ण यात्रा हो सकती थी।खेर मुझे अन्देशा हुआ कि स्थानीय लोगों को किलोमीटर के दूरी की समझ शायद कम है और यह ट्रेकिंग मेरे गूगल-अर्थ पे किए एक्सर्साइज़ के अंदाज़े से मात्र 5-7 किलोमीटर लग रहा था।खेर अब हम राह में बढ़ चुके थे।रामनाथ जी ने व्यंगपूर्ण अंदाज़ में उससे यह भी पूछा कि कहीं रास्ते में अंकल तो नहीं मिलेंगे।यहां अंकल से उनका तातपर्य भालुओं से था।


जामणा गांव के ऊपर किसी बागीचे में ओलों से बचने के लिए सेब के पेड़ों पर बहुत खूबसूरती से सफेद जालियां बिछाई गयी थी।गांव के ऊपर एक विशाल मैदान था और वहां क्रिकेट की पिच बनी हुई थी।गाइड ने बताया कि वहां टूर्नामेंट भी होता है।एक जगह उसने हमें एक पानी का पाइप जो जंगलों से नीचे को था,से पानी अपने बोतलों में भरने का आग्रह किया और यह भी बताया कि यह पानी जड़ी-बूटियों से परिपूर्ण है।अब हम घने जंगलों में समा गए।

Fuel wood in abundance
दयार,तोश वेरायटी के दरख्तों से सटा यह जंगल का इलाका बेहद भयावह लग रहा था।मुझे गाइड ने कई तरह की जंगली जड़ी  बूटियां जैसे कि अर्जुन  की छाल ,कोरी,छतरी ,पतीश ,तलशी ,चुंखारी ,तंगुल और धुपनु के पेड़ पौधे दिखाए।  यहां के जंगलों में जंगली मशरूम यानि गुच्छियों की भी भरमार होती  है जिसे स्थानीय बोली में छुंछुरु भी कहते हैं।  जंगल में एक अलग तरह की वीरानी और ख़ामोशी थी।जगह-जगह बड़े-बड़े पेड़ गिरे पड़े थे और लकड़ियों की भरमार थी।रास्ता ठीक था किन्तु कई जगह फिसलनदार भी था। सब से आगे बोद्ध साहब अपने जोशीले स्वभाव और ट्रेकिंग के अनुभव के चलते हम सब को आवाज़ दे कर टीम का स्वत: ही प्रतिनिधित्व कर रहे थे। तोप सिंह जी और मेरी चलने की रफ़्तार सामान्य थी किन्तु सुशील और रामनाथ जी बेहद मज़े और आराम से चढ़ रहे थे।गाइड भी अपनी मद्धम रफ़्तार में था।

अभी कुछ ही दूरी पर घने जंगल में जब हम चढ़ रहे थे कि  नीचे अचानक  एक काले रंग का छोटा सा भालू गर्जन करता हुआ निकल गया।गनीमत यह रही कि इस ने घात लगा कर वार नहीं किया वरना हम लोगों को जख्मी कर सकता था।मैंने जोर से आवाज़ दे कर सब को एलर्ट कर दिया ।यद्यपि यह जगह गांव से ज्यादा दूर नहीं थी किन्तु ग्रेट नेशनल पार्क की सीमा साथ होने के चलते शायद जंगली जानवर वहां कभी-कभार दिख जाते हों।आखिर जिस अंकल की बात रामनाथ जी कर रहे थे,उस के दर्शन वहां अनायास हो ही गए।अब सबसे आगे चलने वाले बौद्ध साहब बेहद एलर्ट हो गए और जयकारा मार कर वह टीम की हौसला-अफ़ज़ाई करने लगे।मैं भी उन के साथ बीच-बीच में जोर-जोर से चीखें मार कर जंगल में गुंजन करने लगा ताकि कोई जँगली जानवर हमारे पास न फटक सके।गाइड के अनुसार तेंदुए ,भेड़िए भी इन जंगलों में नज़र आते हैं और कई तरह के अन्य पशू पक्षियों की वहाँ भरमार है। एक पक्षी के गूंजने की अजीब से आवाज़ ने मेरा ध्यान आकर्षित किया जिसे मैं पहली बार सुन रहा था। 

Green meadows in amidst
इस बीच एक हरे विशाल मैदान में हम पहुंचे।देखने में यह शिमला के मशोबरा के गोल्फ-कोर्स मैदान की तरह लग रहा था। यहां गांववासियों के भेड़-बकरियां चर रही थी।इस मखमली मैदान के बिलकुल ऊपरी छोर पर हमने कुछ देर विश्राम करने की ठानी।अब फिर से घना जंगल आरम्भ हुआ किन्तु ऊंचाई काफी बढ़ गयी थी।एक जगह पहाड़ से ढेरों चट्टानों की बाढ़नुमा सी अजीब दिखती परत थी जो शायद पूर्व में दवाब से नीचे को डेह गए थे। बीच में दो और छोटे मैदान आए और वहां गद्दियों के थाच यानि रेन-बसेरा बने हुए थे।बस यहां कल-कल करता हुआ एक चश्मा बह रहा था अन्यथा रास्ते में कहीं भी पानी का स्त्रोत नहीं था।रास्ते में ढेरों दरख्त की बड़ी टहनियां गिरी पड़ी थी इसलिए आगे बढ़ने में दिक्कत आ रही थी।

Most toughest part of route
अब हम इस रास्ते के सब से कठिन छोर पे थे।यह करीबन 1.5 किलोमीटर दूरी वाली एक गलीनुमा सीधी सबसे कठिन चढ़ाई थी।यह एक नाला भी था और छाँव वाले ओट में कई जगह बर्फ के अवलांच् पड़े हुए थे।यहां दो-दो कदम रखने पर सांस बेहद फूल रही थी और कदमताल  जैसे एकदम थम से गयी थी।एन. जी.बौद्ध साहब जेयकारे मारते बहुत ऊपर निकल गए थे।दूसरे नंबर पर में उन से करीब 15 मिनट पीछे था।बाकी कोई सदस्य नज़र नहीं आ रहा था।नाले में गुलाबी रंग के जँगली फूल बहुत ही खूबसूरत लग रहे थे।

First base of Lambhri towards sarchi
जहां यह रास्ता खत्म हुआ वह दरअसल लाम्भरी जोत का अंतिम पड़ाव था।यहां पहुंच कर बंजार तहसील के दोनों और की वेलियाँ दिख रही थी।दूसरी और शोझा और घ्याघी गांव बहुत नीचे नज़र आ रहे थे और इस तरफ सरची और गुशैणी का इलाका नज़र आ रहा था।ऊपर कुछ किलोमीटर की दूरी पर बेहद अधिक ऊंचाई में लाम्भरी माता का खुले में मन्दिर नज़र आ रहा था और झंडे हवा से लहलहा रहे थे।मैंने तुरन्त यहां फोटोग्राफी करनी शुरू कर दी।सबसे पहले पहुंचने वाले बौद्ध साहब यहां ख़ुशी से गुनगुना रहे थे और आवाज़ दे कर नीचे अन्य साथियों को पुकार रहे थे।थोड़ी देर में तोप सिंह जी भी हाँफते हुए उस पोइंट पे पहुंचे।इस के कुछ देर बाद सभी सदस्य भी बारी-बारी से ऊपर पहुंचे।सुशील जी भी फोटोग्राफी का शौकीन रखते हैं,वह शायद मज़े से रास्ते में फोटो क्लिक करते रहे,इसलिए सबसे पीछे थे।

Pulaoo
अब बोद्ध जी के हिदायत अनुसार लंच को इस जगह पर करने का निर्णय लिया गया और कैमरा के अलावा अपने बैग वगेरह भी इस जगह पर छोड़ने को कहा गया।ऊपर पवित्र जोत में जोगनियों का वास माना जाता है इसलिए हम ने खाने-पीने का सामान वहां न ले जाने का अच्छा निर्णय लिया। मैं घर से चिलड़ और मिर्ची वाली आलू की सब्जी के साथ-साथ पलाऊ बना के लाया था।अन्य सभी जनों ने भी भांति-भांति के भोजन लाए थे। थकान की वजह से भोजन बेहद स्वादिष्ठ लग रहा था।अब इस वक्त दिन के 2:30 बज चुके थे।अब सामने चट्टानों के मध्यस्थ कुछ दूरी तक फिर सीधी चढ़ाई वाला रास्ता था।हम आगे बढ़े।

जैसे ही ऊपर पहुंचे वहां का नज़ारा बेहद जहीन था।रिजनुमा पहाड़ी के ऊपर दूर-दूर तक खाली मैदान सा दिख रहा था।ऊंचाई की वजह से पेड़-पौधे और वनस्पती का फिलहाल नामोनिशान नहीं था।लगभग 1 किलोमीटर का फासला तय कर के अब हम बिल्कुल लाम्भरी माता के मन्दिर के पास पहुंचे।
Mata lambhri's dwelling
यह मन्दिर लाम्भरी जोत के एक रिजनुमा मैदान के कोने में बिल्कुल खाई के साथ शोझा की दिशा में बना है और खुले आसमान के नीचे है क्योंकि इस में कोई छत वगैरह भी नहीं है ।कुछ पत्थरों को इकट्ठा कर के एक छोटा सा चबूतरा सा बनाया गया है जिस में कुछ लोहे व लकड़ी की छड़ों में लाल रंग के कपड़े झंडे के रूप में बांधे गए थे।हवा की वजह से हमें धूप जलाने में कठिनाई हो रही थी।

इतनी खूबसूरत जगह में पहुंच कर हर किसी का मन ख़ुशी से विभोर हो चुका था।हम जोर-जोर से माता लाम्भरी और श्रंगा ऋषि के जयकारे लगा रहे थे।एक जगह हम ने अपने जूते उतारे और नंगे पाँव मन्दिर की और बढ़े।
मन्दिर में माथा टेकने और धूप-बत्ती करने के पश्चात अब हम ने नज़ारों का आनंद लेना शुरू किया।अब इतनी सुंदर जगह पहुंच के फोटोग्राफी न हो,यह नहीं हो सकता।सब ने अपने मोबाईल फोन वगैरह से वादियों का फोटो लेने में कोई कसर नहीं छोड़ी।
Superb ridges
सब से सुखद बात यह थी कि उस समय न ही वहां बारिश हो रही थी और न ही तेज हवा चल रही थी। मई माह में भी जगह-जगह जोत में बर्फ की मोटी चादर फेली हुई थी।इस से यह साफ़ हो गया कि यह बंजार की सब से ऊँची चोटी है।लाम्बा लाम्भरी के जोत पर चलना मून वाक करने के समान है। 

मुझे किसी ने यह अवगत कराया था कि अपने साथ लाम्भरी में छाता अवश्य ले जाना क्योंकि जोत में अचानक मौसम के परिवर्तनशील होने से मूसलाधार बारिश होती रहती है और ऐसे में वहां छिपने के लिए न कोई पेड़ मिलता है और न ही किसी पहाड़ी की ओट।यह बात बिल्कुल सत्य थी लेकिन हम बेहद भाग्यशाली लोग थे क्यूंकि माता के आशीर्वाद से सब कुछ ठीक था।
फोटोग्राफी करते समय कुछ देर धूप भी खिली।लाम्भरी का सम्पूर्ण इलाका जो कि समुद्रतल से 3475 मीटर ऊँचा है ,मेरे अंदाज़े से 15 किलोमीटर का हो सकता है जो उत्तर-पश्चिम की ओर सरयोलसर झील की दिशा की ओर फैला है।
Lambhri stretch towards Saryolsar Lake
यदि ऊपर रिजनुमा मैदानों से ट्रेकिंग की जाए तो शायद झील तक पहुंचने में पूरा दिन लग सकता है।लाम्भरी से हिमालय पर्वत के दर्शन 360 डिग्री एंगल में होते हैं। चारों दिशाओं में बस पर्वत ही पर्वत दिखते हैं। यहां से जलोड़ी दर्रा,रघुपुर भी दिख रहा था।मौसम खराब होने की वजह से हम श्रीखण्ड जोत की पर्वतमाला व पीर-पंजाल की चोटियों को अच्छी तरह निहार नहीं सके।साफ़ मौसम होता तो शायद सभी शिखरों के दूर से दर्शन भी कर सकते थे।
Beauty of Lambhri


लगभग 1 घण्टा वहां वादियों का आनंद लेने के उपरांत हम वापिस चल पड़े।हैरानी की बात यह थी कि अब जोत में घने बादल उमड़ पड़े थे।चारों और कोहरा बिछ गया था और मौसम खराब होने लगा था।ऐसे में अब हमारा प्रस्थान करना उचित था।हम ने कुछ देर बर्फ में भी अठखेलियां खेली।इस समय शाम के 4:30 बज चुके थे।
Abundance of snow in May month in higher reaches

अब हमें रास्ते का ज्ञान था इसलिए दो-दो की टोली में नीचे को गप-शप मारते हुए उतरते जा रहे थे।बोद्ध साहब काफी आगे निकल चुके थे।फिर वह हमें नीचे उसी विशाल हरे मैदान में हमारा इन्तेज़ार करते हुए मिले।कुछ देर  वहां क्षणिक विश्राम करने के उपरांत हम गाना गाते-गाते आगे बढ़े।
Sarchi from birds eye view
सबसे पहले बोद्ध साहब सर्वप्रथम जामणा होते हुए सरची पहुंचे। वह बेसब्री से हम सब का इंतेज़ार कर रहे थे।मैं जामणा से गांव के कुछ युवकों से बात-चीत करता हुआ लगभग 7 बजे शाम को सरची पहुंचा। वहां जायलो टेक्सी का ड्राइवर हमारा इन्तेज़ार कर रहा था।हमने उसे जामणा की ओर जा कर बाकि के तीन साथियों को ले के आने को कहा क्यूंकि मुझे यह अन्देशा हो रहा था कि कहीं रामनाथ जी थकान से चूर न हुए हो।

तब तक मैं और बोद्ध साहब ने सरची के ढाबे में कड़क चाय का आनंद लिया।थोड़ी देर में गाड़ी में बाकि के मेम्बरान भी आ गए।सब बिलकुल तुष्ट और तरोताज़ा लग रहे थे और किसी के भी चेहरे में कोई थकान की कोई शिकन नहीं थी।परम पावन यात्रा के सफल आयोजन की सन्तुष्टि सब के दिल में थी।
Bye-bye guide
"यहां रामनाथ जी ने एक तथ्य से हमें अवगत कराया कि  जामणा से लाम्भरी की वास्तविक दूरी 11.5 किलोमीटर थी और यह  उनके मोबाइल फोन के ऐप्स के अनुसार था। यानि हम सुबह से कम से कम 22 किलोमीटर ट्रेकिंग कर चुके थे।" 
रामनाथ जी ने गाइड मोहर सिंह को उचित मुआवज़ा देकर जामणा में रुख्सत कर दिया था। चूँकि मई माह में दिन लम्बे होते हैं,इसलिए अभी अँधेरा नहीं था।फिर से कईं मोड़ों एवं 17 किलोमीटर की दूरी के बाद हम करीब 8:30 बजे नीचे गुशैणी मॉर्ग पे पहुंचे। 

Rest in home stay
हम मुंगला में करीब 9 बजे पहुंचे।होम-स्टे के मालिक यज्ञ चन्द ने सर्वप्रथम हमें चाय पिलाई और तीर्थन नदी के खड की ट्राउट मछलियों को बेहतरीन तरीके से पका कर हमें परोसा।तोप सिंह जी,सुशील और मैंने थकान मिटाने के लिए साथ में कुछ व्हिस्की और बीयर मंगा ली। इस बीच खूब गप-शप मारते रहे और ठीक 10:30 बजे रात्रि हम डीनर कर के सो गए।थकान की वजह से बिस्तर में घुसते ही हम सब चिर निद्रा के आगोश में चले गए।

प्रात:7 बजे उठ कर होटल में लगे सोलर पानी से स्नान करने के उपरांत हम सब ने ब्रेकफास्ट में आलू के परोंठे दहीं के साथ चखे और फिर बोद्ध जी की स्विफ्ट कार में कुल्लू की और चल पड़े।
Lambhri Selfie
इस तरह हमारी यह फटा-फट यात्रा बहुत सफल रही जिस में रहस्य-रोमांच का आनंद लेने के साथ-साथ एक अलग तरह की आध्यात्मिक अनुभूति महसूस किए वापिस अपने-अपने घरोंदों को अनमोल याद लिए लौटे।इस यात्रा से हम सब के शारिरिक क्षमता का भी परिक्षण हुआ और यह मनोबल मिला कि हम और भी कठिन यात्राओं की ट्रेकिंग की क्षमता रखते हैं।

जय लाम्भरी माता।

Tuesday, May 17, 2016

अल्यास झील के दर्शन-यात्रा वृतान्त

        नैसर्गिक अल्यास झील के दर्शन -राहुल देव लरजे 
The lake Alyas

         वर्ष 2014-15 में स्थानीय हिमाचली अख़बारों में यह खबर छपी थी कि लाहुल&स्पीति में ग्लोबल वार्मिंग के चलते ग्लेशियरों के टूटने और पिघलने से कई कुदरती झीलों का निर्माण हुआ है और इस तथ्य की जांच-पड़ताल के लिए प्रशासन के अनुरोध पर स्थानीय वन विभाग के कर्मचारी कुछ जिओलॉजिस्टस के साथ वास्तविक हालात का जायज़ा लेने के लिए लाहुल के ऊंचाई वाले स्थलों को निकले भी थे। यह बताया जा रहा था की लाहुल के चोखांग घाटी के नील-कंठ इलाके में भी कई नई झीलों का निर्माण हुआ है। इन में एक झील केलंग के नजदीक बिलिंग नाले में पहाड़ी से मलबा गिरने के उपरांत बन गई थी और इस की भनक लगते ही स्थानीय प्रशासन ने खतरे का जायज़ा लेने के लिए एक टीम वहां भेजी थी क्यूंकि  इकट्ठे होते जल के बढ़ते घनत्व के दवाब से यह झील एकदम  नीचे बने पावर हाउस के अतरिक्त मनाली-लेह सड़क को भी भारी नुक्सान पहुंचा सकती थी। सोभाग्यवश ऐसा नहीं हुआ।  कुछ ऐसी ही ख़बर सिस्सू नाले के मूल स्त्रोत जो की एक विशाल ग्लेशियर है,के बारे में कहा जा रहा था की इस के आंगन में एक विशाल झील का निर्माण हो चुका  है और यह कभी भी फट कर लाहुल के चन्द्रा  नदी के किन्नारों सहित आगे चनाव की घाटी और पाकिस्तान तक बाढ़ का कहर बरपा सकती है।  
           
          वैसे तो तिनन घाटी से कई लोग पूर्व में इस दिव्य झील के दर्शन कर चुके होंगे किन्तु सिस्सू नाले का स्थानीय बोली में नाम न्यिशल्टी लुम्पा  हैं,(शेल्टी का तात्पर्य बर्फ का पानी एवं लुम्पा का अर्थ नाला  है )  के ऊपर बने इस अभी तक गुमनाम रहे इस झील के बारे में शायद बहुत कम लोगों लो ज्ञान है। बड़ा आकार लेती इस झील के फटने के आसार से उत्पन खतरे की खबर से अचानक इस झील का नाम सामने आने लगा।    
A thick Glacier,the source of the Lake Alyas

Thanks Google Earth
जियोलोजिकल सर्वे आफ इण्डिया के अनुसार उपग्रेहों द्वारा ली गई तस्वीरों में यह झील साफ़ झलकती है जो पूर्व  में आकार में बहुत छोटी थी। जो स्थानीय लोग यहाँ हैं]उन्होंने इस झील का नाम घेपन घाट या घेपन झील रखा है क्यूंकि यह लाहुल के सब से अधिष्ठ देवता घेपन राजा के नाम से विख्यात लगते पर्वत घेपांग-घो के नहदीक प्राकृतिक तौर पर बना है।   

गद्दी समुदाय ने इस झील का नाम आल्यास झील रखा है। किसी भी नाले के उदगम स्थल को शायद गद्दी समुदाय के लोग आल्यास कहते हैं। इसी नाम से लाहुल के चोखंग घाटी में पवित्र नील&कंठ झील के पास एक पड़ाव है और रापे-राशेल से हो कर मणि-महेश पद यात्रा में कुगती जोत के पास भी एक जगह है। मेरे व्यक्तिगत विचार से भी उपरोक्त झील को घेपन झील की बजाए अल्यास झील कहना बिलकुल उचित है।

यह झील तखलंग गाँव के साथ लगते खेतों  के ऊपर बने मोड़ से लगभग 14.1 किलोमीटर दूर घेपन पर्वत के बिलकुल पीछे की घाटी में है। मैंने स्वता ही  मन में ठान लिया कि क्यों  न इस झील के दर्शन कर लिए जाएं और क्यों न वास्तविक  हालात का मुआयना भी कर लिया जाए। अता जुलाई माह 2015 में चुपचाप अल्यास दिव्य झील के  दर्शनाभिलाष लिए  निकल पड़ा।

Ariel view of Lake Alyas
  इस से पहले मैंने इंटरनेट तकनीकी का फायदा उठा कर गूगलअर्थ नामक सॉफ्टवेयर के द्वारा इस झील की   टोपोग्राफी का अध्यन्न किया और अपने मोबाइल फोन में सेटेलाइट वियू में हर कोण से झील के इलाके की फोटो संजो कर रख ली जो बाद में बेहद काम आई। 

   एक नए दुर्गम स्थल में अकेले जाना खतरे से खाली नहीं होता है इस लिए फोन द्वारा खंगसर गाँव के अपने एक मित्र वीरेंद्र उर्फ़ सूरी को साथ चलने का आग्रेह किया।  उस ने इस यात्रा में चलने की हामी भर दी। निर्धारित दिन को मैं सीधे मनाली से केलंग पहुंचा और वहां अपना व्यक्तिगत कार्य निपटा के झील की ट्रेकिंग हेतू खाने पीने  सामान जैसे कि गलूकोज,चॉकलेट,टाफियां और फ्रूट केक वगैरह खरीद लिए। रात को मैंने खंगसर में सूरी के घर रहने का निर्णय लिया क्यूंकि वहां से हमें ट्रेकिंग पर निकलने के लिए दूरी कम हो सकती थी।

       
My accomplice Suri
मैंने अपने सहभागी को एक छोटा स्टोव]टार्च]कुछ खाने पीने का सामान पैक करने का आग्रेह किया। कुल्लू से अपनी गाडी में दो जनों वाला टेंट,स्लीपिंग बैग व मैट भी साथ ले आया। अगले दिन शीघ्र गंतव्य को प्रस्थान करने का निर्णय ले कर हम जल्दी रात्रिभोज कर के सो गए। उस से पहले हम ने अपने रकसेक में कुछ लोजिस्टिक वस्तुओं की पुष्टि भी की। मकान के पास लकड़ियों की ढेरी में से लाठियां भी निकाल कर रख दी जो बाद में बेहद काम आई। 

सुबह ठीक 4:30 बजे मेरे मोबाइल फोन का अलार्म बजा और फटाफट हम तैयार हो कर गाड़ी में सिस्सू को रवाना हुए। शाशन गाँव में राजा घेपन के मंदिर के पास पहुंच कर मन ही मन देवता से यात्रा सफल होने की मन्नत मांगी। पहले यह अनिश्चित था कि गाडी को कहां पार्क किया जाए]फिर अचानक हमे ख्याल आया कि लिंक रॉड पर काफी ऊपर तक गाडी को ले जाया जा सकता है। इसलिए सिस्सू से आगे नरसरी की ओर निकल पड़े और वहां से तेलिंग को लगते लिंक रॉड पर निकल पड़े।

   खूबसूरत लम्बी हरी घास के चरागाहों और खेतों के मध्यस्थ बने सड़क से होते हुए कुछ दूरी पर ऊपर लबरंग गोम्पा पहुंचे। सूरी के निर्देशानुसार वहां से फिर बाएं हाथ एक अन्य लिंक रॉड जो कि छोककर,शुर्तग और तखलंग तक जाती है,पे मैंने अपनी गाडी उतार दी। यह कच्ची सड़क  हमें धीरे-धीरे सर्पनुमा मोड़ों से ऊपरी दिशा की ओर ले जा रही थी और वहां चंद घरों के मकान दिख रहे थे।
 

A view of Sissu & Shashin villages
अब प्राता के 5:30 बजे थोड़ी हल्की रौशनी में सिस्सू और शाशन गाँव काफी नीचे दिखाई दे रहे थे। करीब 5 किलोमीटर ऊपर पहुंच कर जहां अब खेतों की सीमा समाप्त हो रही थी,वहां एक मोड़ पे मैंने अपनी गाडी पार्क करने की सोच ली क्योंकि वहां से पगडंडियां बनी हुई थी। वहां खेत के किनारे बने एक अस्थाई तम्बू से एक वृद्ध नेपाली जोड़ा हमें उत्सुकतावश निहार रहे थे। हमने दूर से ही चीख कर उनसे झील जाने का रास्ता पूछा। इन्होने टूटी-फूटी हिंदी में हमें रास्ता बता दिया। वह वृद्ध नेपाली कुछ दूर तक हमारे साथ आया और बताने लगा कि ऊपर कुछ दूरी तक मटर के खेत हैं जहां वे काम करते हैं।
  

 अब आगे हम अंदर सिस्सू नाले की ओर हो लिए और ढलान पगडण्डी में कुछ ऊपरी दिशा में चढ़ने लगे। सिस्सू नाले के अंदर का पूरा विहंगम दृश्य नज़र आ रहा था और शाशन गाँव के छोटे-छोटे,हरे-लाल छत नज़र थे। सिस्सू हेलीपेड के पार प्राकृतिक दिखता विशाल जलप्रपात पलदन लामोह भी यहां से बेहद छोटा नज़र आ रहा था। जहां खेत समाप्त हुए वहां ऊपरी छोर पर मैदाननुमा जगह पर लम्बे डंगे बनाए गए थे,जिसे कूद कर हमने पार किया।  

Nehar route
यह डंगे स्थानीय वन विभाग ने परिसीमा निर्धारण करने के लिए लगाए हैं और जगह जगह बिल्लो के पौधे भी रोप रखे हैं। इस डंगे के साथ एक काफी अच्छा सीमेंट का कुहल बनाया गया है जिस में शीतल पानी बह रहा था जो शायद तेलिंग के साथ लगते अन्य गावों को सिंचाई हेतू बनाया गया है।  
A flock of Gaddi Sheeps

दूर नीचे एक मैदाननुमा जगह में भेड़ों का झुण्ड आराम करता नज़र आ रहा था और पत्थर के थाच में कुछ गद्दी आग जला कर सेक रहे थे। हम दोनों कुहल के साथ आगे बढ़ते गए किन्तु गलती से एक पगडण्डी में नीचे की ओर उतर गए। एक खाईनुमा टीले में भेड़ बकरियों का झुण्ड देख कर वहां पहुंच गए। वहां एक छोटी सी गुफा के ओट में दो गद्दी सुबह सुबह ताश खेलते हुए मिले। वे रम्मी खेल कर समय व्यतीत कर रहे थे।  
Nature's art in Sissu Nalla
बकरियां हम अजनबियों को देख कर जोर जोर से चिल्ला के मेमे कर रहीं थी। एक गद्दी कुत्ता भी थोड़ी देर भौंका किन्तु फिर चुप हो गया। यह हमारा आराम करने का प्रथम पड़ाव था। मैंने अपने बेग से दूध पाउडर निकाल कर  गद्दियों से कड़क चाय बनाने की गुज़ारिश की और खाने के लिए फ्रूट केक भी निकाल लिया। सुबह 7 बजे चाय की चुस्कियां लेने का बेहद आनंद आया। हैरानी की बात यह थी कि वहां बी-एस-ऐन-एल का भरपूर सिगनल था और मेरे सहभागी सूरी ने अपने घर वालों से फोन द्वारा वार्तालाप की। ततपश्चात इन गद्दियों से कुछ देर वार्तालाप करने के उपरान्त हम आगे की ओर निकल पड़े।   

    अब हम आगे घेपन पर्वत में बने ग्लेशियर से निकलने वाले नाले घेपंग गठा के मुख पे पहुंचे। यहां हम ने बहुत बड़ी गलती कर। दी। कुछ दूरी में नाले में खतरनाक से दिखते रास्ते की बजाए हम दोनों ऊपरी दिशा में गलत रास्ते पे चल दिए। दरअसल नाले में बहुत ज्यादा पानी बह रहा था और हमें ऐसा कोई छोर नज़र नहीं आ रहा था जहां से नाले को पार किया जा सके।बर्फ के विशाल एवलांच के ऊपर चल कर पार करना भी बेहद ही कठिन लग रहा था। एवलांच में जगह जगह क्रेवास बने थे]जिन पर चलते वक्त ज़रा सी गलती होने पर अंदर गहराई वाली खड्डों में समा सकते थे और वहां से बाहर निकलना बेहद कठिन हो सकता था।     

     इस लिए हम ने निर्णय लिया कि घेपन गठा के ऊपरी छोर की तरफ चढ़ा जाए ताकि पानी के बहाव के कम होने की सूरत में उसे कहीं से पार किया जा सके। यहां जो लाठियां हम ने साथ लीं थीं,वे बेहद काम आयीं।बेहद खतरनाक चढ़ाई में एवलांच के ऊपर एक&एक कदम रखने से पहले हम जमे बर्फ पर लाठियों से वार कर के कदम रखने लायक जगह बना रहे थे। नीचे नज़र डालें तो स्पॉट खायी नज़र आ रही थी और फिसलने की सूरत में जान भी जा सकती थी। दिल के धक-धक करने की आवाज़ साफ़ सुनाई दे रही थी। मैं इतनी ऊंचाई में सांस फूलने से बेहद हांफ रहा था। हमारी बदकिस्मती यह थी कि अब नाला अब ऊपर दो भागों में विभक्त था। दोनों नाले उफान पर थे और कहीं से भी इन्हें पार करने की उपयुक्त जगह नहीं दिख रही थी। खैर हम दोनों हाँफते-हांफते उस नाले में बेहद ऊपर तक चढ़ गए। 

    लेकिन प्रभु यह क्या। सामने 5870 मीटर ऊंचाई वाला देव पर्वत घेपंग घो का विहंगम दृश्य था।दरअसल हम इस पर्वत के दक्षिण छोर से लगते ग्लेशियर के बिलकुल मुख पर थे।    

Very close to Ghepan Gho

अद्धभुत दिखते विशाल ग्लेशियर से हम मात्र आधे किलोमीटर आगे उस के मुख पर हम खड़े थे जो ऊपरी ओर घेपन पर्वत से लटका था। 
इस के निचले मुहाने पर जहां हम खड़े थे वह मिट्टी और विशाल पत्थरों से सटा  पड़ा था। 
पवित्र पर्वत को इतनी नज़दीक से देखने को मिलना एक आलौकिक चमत्कार जैसा महसूस हो रहा था। ऐसा महसूस हो रहा था मानों यह पर्वत हमें  हिप्टोनाइज  कर अपनी ओर   नज़दीक बुला रहा हो। मेरे सहभागी सूरी को लग रहा था कि वहां से आधे किलोमीटर अंदर ग्लेशियर के प्रांगण में कोई  झील है और उत्सुकतावश उधर चलने को कहा किन्तु मैंने साफ़ इंकार कर  दिया क्यूंकि ऐसे उच्च  स्थानों पर लगातार ग्लेशियरों के टुकड़े नीचे गिरते रहते हैं जो हम  दोनों के लिए खतरनाक सिद्ध हो सकते थे। 

घेपन ग्लेशियर के नज़दीक जाने का मोह त्याग कर अब हम गंतव्य वाले राह को निकल पड़े किन्तु वास्तव में यहां से राह का कोई नामोनिशान नहीं था क्योंकि हम बेहद ऊंचाई पर गलत जगह पहुंच चुके थे। आगे की राह एक मैदान के बाद बेहद खतरनाक और खाईनुमा नज़र आ रही थी। संकरे रास्ते में कदमों से जरा सी चूक हो जाती तो सीधे मौत से सामना हो सकता था। अब हमारी चाल डर से कछुआनुमा हो गई। ऊपर से देखने पर अब हमे ज्ञात हुआ कि वास्तविक पगडण्डी बेहद नीचे है और हम बेहद गलत और खतरनाक रास्ते से आगे बढ़ रहे थे। अब नीचे सिस्सू नाले का पिछला हिस्सा भीतर की ओर दायीं दिशा में मुड़ रहा था और सामने दिखते पहाड़ों की रूप-रेखा भी बदल रही थी।     

Mighty revered peak Ghepan-Gho





अचानक एक ऊँचे स्थल से अल्यास झील के प्रथम दर्शन सुलभ हुए। यह दृश्य हमारे चेहरे पर एक सुकून और मुस्कान ले आई और थकान मानों उड़न-छू हो गया हो। एक हल्के नीले विशाल झील से कुछ दूरी पर हम खड़े थे। मैंने उस जगह से झील के फोटो खींचे।आस पास की पहाड़ियों पर गद्दियों के भेड़-बकरियां चर रहीं थी। झील को पास से देखने के लिए आतुर मनोस्थिति में हमारे कदमताल में अचानक तेज़ी आ गई आ गई। हम जैसे&तैसे नीचे झील के किनारे वाले मैदान तक आ पहुंचे। वहां से झील के किनारों से पहले चारों और दुर्गनुमा खाड़ी बनी थी और एक-दो नाले भी बह रहे थे। अपने जूते उतार कर हम नालों में उत्तर गए और पार नुकीले पत्थरों&चट्टानों के ढेरों के ऊपर पहुंचे। वाह क्या लाज़वाब नज़ारा था।    


यह समुद्रतल से 4030 मीटर की ऊंचाई पर लगभग २ किलोमीटर लम्बी और आधा किलोमीटर चौड़ी विशाल झील है। इस में ग्लेशीयर के कुछ टूटे हुए बड़े टुकड़े भी तैर रहे थे। झील के दक्षिणी किनारे पर हरी लहलाती घास में फूल भी खिल रहे थे। इस झील में तोद घटी की दिशा की ओर वाले अंदरूनी पर्वतों के नालों से पानी भी आ रहा था किन्तु वास्तविक स्त्रोत तिनन घटी के रंगलो बेल्ट के उतरी पश्चिमी दिशा की ऊंची पर्वत शिखरों के विशाल जमे ग्लेशियरों से रिसता पानी ही है।      

A minaret like peak

यहां यह तथ्य से सभी को अवगत किया जाता है कि इस झील का पानी कदापि घेपन पर्वत के ग्लेशियरों से नहीं निकलता है बल्कि कुल्लू के रामशिला के गेमन पुलिया से या बंदरोल के नवोदय विद्यालय के मोड़ से नज़र आने वाले मीनारनुमा पर्वत के ग्लेशियरों के स्त्रोतों से है। कुल्लू जिले के कई स्थलों से इस पर्वत को गलती से घेपन पर्वत समझ लिया जाता है किन्तु घेपन घो इस झील के उत्तर पश्चिमी दिशा में है। घेपन पर्वत और इस मीनारनुमा पर्वत के मध्य एक दुर्गनुमा पर्वतों की बेहद खूबसूरत श्रृंखला है।  



   जिस ग्लेशियर से झील में पानी रिसता है ]उस की मोटाई कम से कम 400 मीटर के करीब होगी। झील के दक्षिणी छोर से दूसरी तरफ जा सकते हैं किन्तु ग्लेशियर वाले मुहाने से पुरे झील का चक़्कर लगाना असम्भव और खतरनाक दिखता है।  यह ग्लेशियर अंदाज़े से करीबन 7 मंजिला ऊंची या मोटी दिखती है और ऊपरी परत बेहद मटमैली है। जिस तरह जुलाई माह में बर्फ के विशाल टुकड़े झील में तैरते हुए नज़र आ रहे थे,उस से यह प्रतीत होता है कि यह ग्लेशियर गर्मी के दवाब से टूट और पिघल रही है किन्तु यह अनअपेक्षित परिवर्तन रातों-रात नहीं हो सकता। मेरे अंदाज़े से यह गत 20 से 30 सालों में हुआ है। शायद इस झील का आकार पहले बहुत छोटा रहा हो और ग्लेशियर का मुख्य आगे तक फैला रहा हो और ग्लोबल वार्मिंग के असर से अब हर वर्ष सिकुड़ता जा रहा हो। यह तथ्य बाद में अगले दिन सिस्सू नरसरी में चाय के एक ढाबे में एक स्थानीय निवासी ने हमें बताया कि पास ही के गाँव शुरताग के एक वयोवृद्ध बुजुर्ग श्री शंकरदास जिन की आयु 104 वर्ष की है,अपनी जवानी में जब इस झील को देखने गए थे तो उनके अनुसार यह बहुत ही छोटी झील थी।   

  
Floating pieces of glacier

वैसे तो यह झील दुर्गनुमा टीले के भीतर सुरक्षित है और झील के दक्षिणी छोर  में एक कोने से पानी बह कर सिस्सू नाला  बन जाता है किन्तु ज्यादा पानी रिसने की सूरत में मिटटी के टीलों को दवाब बना सकता है। यदि झील का आकार इतना ही रहता है तो फिलहाल कोई खतरे वाली बात नहीं है। झील के साथ वाली पहाड़ियों से रोज़ एवलांच का गिरना आम बात है। जब हम झील का चक़्कर काट रहे थे तो एकदम जोरदार धमाके से हम चौंक गए। हम ने ऊपरी दिशा में एवलांच के टुकड़ों को गिरते देखा। यह बेहद ज्यादा ऊंचाई और दूरी पर हो रहा था इस लिए खतरे वाली कोई बात नहीं थी। 

झील के नीचे एक विशाल खूबसूरत मैदान है जिस में कैम्पिंग की जा सकती है। इस के आस पास गद्दियों ने  थाच यानि अस्थायी रेन बसेरा बना रखे हैं। साथ ही मैदान के किनारे किसी चट्टान के नीचे से कल कल करती मीठे पानी का चश्मा भी बहता है जो मैदान के मध्य से बढ़ता है।       

A snake like shape in the lake



कुछ देर झील का निरीक्षण एवं फोटोग्राफी करने के उपरान्त हम ने उस मैदान में तम्बू लगा कर ठहरने की ठान ली। इस बीच शाम के 5 बज चुके थे और घाटी में अचानक घने बादल उमड़ पड़े थे। देखते ही देखते ठंडी तूफानी हवा के साथ मूसलाधार बारिश शुरू हो गई। हम फटाफट बारिश से बचने के लिए नीचे गद्दियों के गुफानुमा एक संकरे थाच में बिना अनुमति लिए घुस गए जबकि  वहां बाहर एक विशाल गद्दी कुत्ता रखवाली के लिए बैठा था। हैरानी की बात यह थी कि न ही वह भोंका और न ही उस ने हमें काटने की कोई कोशिश की।   

बारिश कम होने पर हम बाहर निकले और मैदान की ओर चल पड़े। थाच के आस पास भेड़ बकरियों के गोबर का ढेर पड़ा था जिस पर अब बारिश की वजह से चलने में कठिनाई हो रही थी। ऐसा लग रहा था मानों बर्फ या दलदल में चल रहे हों। इतनी ऊंचाई में मौसम बेहद परिवर्तशील रहता है ]एकदम धूप निकलना और बारिश आदि पड़ना स्वाभाविक था।  
  हम ने एक उपयुक्त जगह चुन कर वहां तम्बू लगाना शुरू कर दिया। तभी कुछ गद्दी लोग अपने कुत्तों के साथ हमारे पास आये और उत्सुकतावश हम से पूछने लगे कि कहां से पधारे हैं।    

 जब हम ने उन को गलत रास्ते से वहां पहुंचने की घटना सुनाई तो वे भी बेहद आश्चर्यचकित हुए कि कैसे इतने खतरनाक रास्ते से हम वहां पहुंचे हैं। हम ने उन से अपना पता ठिकाना पूछा। यह लोग कुल्लू के मोहल पंचायत व् मंडी के थाची के उच्च इलाकों से संबंध रखते थे। वे हर वर्ष अपने इन निश्चित पुराने चरागाहों में भेड़ बकरियां चराने आते हैं। उन्होंने यह भी बताया कि झील वाला इलाका कुल्लू और मंडी के गद्दियों की चारागाह है जबकि सिस्सू नाले के दूसरी ओर वाली पहाड़ियों पर चम्बा के गद्दी अपने भेड़ बकरियां चराते हैं। 

  

तम्बू लगाने तक सूर्यास्त हो चूका था और चारों ओर गहरा अँधेरा छाने लगा था। मेरे साथी सूरी ने स्टोव में मैगी और सूप बनाने की सोची किन्तु मैदान में तेज हवा व ऊंचाई के दवाब के कारण स्टोव बिलकुल भी नहीं जल रहा था। बाद में एक चट्टान की ओट में टार्च के प्रकाश में वह आखिर रात्रि भोज पकाने में सफल हुआ। इस  तापमान डिग्री 10 सेंटीग्रेड के करीब था। मुझे अत्याधिक थकान की वजह से तुरंत नींद भी आ रही थी। भोजन करते ही हम दोनों अपने अपने स्लीपिंग बेग के अंदर घुस गए और नीदं की आगोश में खो गए। यह अच्छी बात थी कि इस समय हवा और बारिश थम गई थी। 

A shepeherds transit dwelling 

       अगले दिन सुबह 6 बजे जब मेरी आँखे खुली तो मैंने तम्बू का जंज़ीर हल्के से खोल कर बाहर को निहारा। खूबसूरत मैदान के आस पास कुछ घोड़े चर रहे थे और कुछ गद्दी कुत्ते अट्ठखेलियां खेल रहे थे। आस पास के पर्वतों की चोटियों पर सुनहरी धूप की छटा बेहद मनोरम दृश्य प्रस्तुत कर रहीं थीं। चाय की चुस्कियों के साथ हम ने खूबसूरत वादियों को निहारा और ततपश्चात टेंट को पेक कर दिया। हम अलविदा कहने के लिए साथ लगे गद्दियों के थाच की ओर गए। वहां से एक गद्दी लड़का हमारे साथ राह दिखाने हेतू तैयार हुआ। वह बिना हांफे अपनी गर्दन के पीछे दोनों कंधों पर एक लाठी फंसा कर गपशप मारता हुआ बड़ी सुगमता से राह में आगे बढ़ रहा था।  हम नाले के साथ लगते नीचे वाले रास्ते से वापिस उस के साथ चल पड़े। कई जगह रास्ता बेहद कठिन था क्यूंकि नालों में बाढ़ की वजह से दलदल में पार करना बेहद मुश्किल था किन्तु हमने हिम्म्त कर के इन्हें लांघ ही लिया। 

  
 
    इस तरह के दो तीन नालों से  गुज़रते हुए  अब हम घेपन पर्वत से रिसते वाले बड़े नाले में पहुंचे। इस एवलांच वाले नाले में जहां पिछले दिन चढ़ते वक्त घबरा रहे थे तो अब उसी के ऊपर फिसलते चलते पार हुए। यहां उस गद्दी युवक ने हम से विदा लिया। अब हम कुछ देर में नहर के मुख पर पहुंच गए जहां से निचली दिशा को बिलकुल साफ़ पगडंडियां थी। फिर नाले से बाहर  दुर्गनुमा विशाल चट्टान के पास पहुंचे जहां से तिनन घाटी का सम्पूर्ण नज़ारा दिख रहा था।  


इस समय दोपहर के 12 बज चुके थे चुके थे और नीचे सिस्सू और शाशन गाँव बेहद खूबसूरत दिखाई दे रहे थे। सिस्सू हेलीपेड के साथ लगते झील का दृश्य बेहद जहीन था। इस तरह पार्किंग प्वॉइंट पर अपनी कार के पास पहुंच कर यात्रा के पूरा होने की ढेरों सुकून लिए तृप्ति का एहसास हो रहा था। ऐसा  महसूस हो रहा था मानो  हम ने कोई असम्भव कार्य पूर्ण किया हो। ईष्ट देव राजा घेपन के आशीर्वाद से हमारी यह यात्रा बेहद सुलभ और रोमांचक रही।     
          जय घेपन राजा।