Wednesday, July 3, 2019

करेरी झील की हाईकिंग(मई 2019)

Way to Kareri Lake
आज दिनांक 09 मई 2019।रोज़ की तरह गुज्जर के तालाब के कार्यालय में आफिस-आफिस खेल रहा हूँ।पंजाब की सीमा से सटे इस जगह में अब कुछ दिनों से गरमी बढ़ती महसूस हो रही थी। गरमी से टम्परेरी निजात पाना अवश्य लग रहा है वरना भट्टी में अपना भी तंदूरी चिकन बनना सम्भव है।

अचानक खोपड़ी में ताकत लगा के सोचा कि क्यूं न आफिस के मुस्टंडों को टटोलूँ पूछुं कि क्या कल-परसों आने वाली दो छुट्टियों में कहीं घूमने-फिरने का मन है  या  कमरों में ही सड़ना है।मैंने अपने ऑफिस के क्वालिटी विंग के सबऑर्डिनेट नन्द किशोर से पूछा कि क्या करेरी झील की घेड़ी मारें।उस की पॉजिटिव बाडी लेंग्वेज से पता चल गया कि वह भी आफिस के कार्य से कुछ राहत पाना चाहते हैं।उसने तुरंत हामी भर दी।

हमारे नन्द किशोर जी कांगड़ा के गग्गल के पास ही किसी खूबसूरत गांव भड़यारा के वासी हैं।नन्द के बाद फिर मैंने बिहार के सासाराम के युवा सबऑर्डिनेट प्रभात कुमार को पूछा कि चलना तो नहीं करेरी,उस ने कुछ टालमटोल के बाद हाँ कर दी। दरअसल वह अपने बिहार-यू.पी.के बंदों में कम्फर्ट महसूस करता है। उसी वजह से उसने बताया कि सुरेंद्र यादव भी रेल से वापिस पठानकोट पहुंच रहे हैं,उन्हें भी करेरी लिए चलते हैं।यह सुरेंद्र यादव नामक महानुभाव प्रभात से दफ्तर में सीनियर है,इलाहाबाद से है।मैंने प्रभात से कहा कि भई उसे साथ ले जाने का ज़िम्मा तुम्हारा है,तुम्हीं उसे मोबाइल पे पूछ लो।प्रभात ने कुछ समय उपरान्त बताया कि यादव भी तैयार है।बस अब करेरी झील जाने का खाका तैयार हो चुका था।

तारीख 10 मई 2019।नन्द किशोर,प्रभात और यादव को मैंने आज ट्रेक्किंग के लिए भी अपना-अपना बेग तैयार कर के लाने को कहा था।कुछ आवश्यक लोजिस्टिक्स भी वाट्सऐप के जादुई सन्देश के माध्यम से चस्पां कर दिया था।मैं वट्सऐप को कलयुग का नारद मुनि मानता हूं जो तुरन्त खबर इधर-उधर कर देता है।
अपने-अपने बेग लेकर आफिस आने का यह परपज़ था कि शाम को हम जस्सूर से सीधे करेरी गांव निकल जाएंगे और वहां किसी होम-स्टे में रात्रि विश्राम करेंगे।फिर प्रात: वहीं से शुरू होगी करेरी झील की हाईकिंग।नज़दीक के गांव में पहुंचने से समय भी बचता और पहुंचने में आसानी भी रहेगी।

शाम तक यादव भी दिल्ली से ट्रेन द्वारा जसूर पहुंच गया।ठीक 4 बजे आफिस का कार्य समाप्त करते ही हम जसूर से शाहपुर की ओर कूच कर गए।गाड़ी मेरी वही पुरानी ह्युंडई की आय वाली टेंन जो बहुत साथ देती है।गप-शप मारते हुए ठीक 5 बजे सांय हम शाहपुर पहुंचे जहां से करेरी गांव के लिए एक लिंक रोड डायवर्ट होता है बायां निहरिकी से।शाहपुर में हम ने शाम के लिए कुछ बीयर की बोतलें,फल व फ्रूट-केक,मैगी,टाफियां आदि खरीद लीं।

प्रभात खूब पिकनिक के मूड में था।उसने कहा कि चिकन ले चलते हैं और जंगल में लकड़ी जला कर पकाएंगे।लेकिन मैंने साफ इनकार कर दिया क्योंकि यह लोग हाईकिंग से वाकिफ नहीं थे।10 किलोमीटर ऊपर चढ़ना फिर उसी दिन उतरना,इतना आसान नहीं है।मैं पहाड़ी तो इस का आदी हूं, किन्तु इन लोगों के स्टेमिना पे शक था क्योंकि इतनी हाईकिंग इन्होंने लाइफ में बहुत कम की होंगी।कटरा से वैष्णों माता ट्रेक इन लोगों ने किया है, लेकिन भई इस यात्रा और उस यात्रा में बहुत अंतर है। वह खुली सड़क पे है तो यह जंगलों में पगडंडियों से है।जंगल में भोजन पकाने का मतलब था,समय की बर्बादी,मैंने रेडीमेड खाने-पीने की चीज़ों पे जोर दिया।

खैर सामान वगेरह कार की डिक्की में डालते ही मैंने शाहपुर बाज़ार के कुछ आगे एक बाएं हाथ वाले लिंक रोड पे कार मोड़ ली।यह बायां निहारिका से तल माता मंदिर  को जाने वाली सड़क है और यही हमें करेरी गांव तक पहुँचाएगी। धीरे-धीरे अब कार ऊंचाई महसूस करने लगी क्योंकि अब फर्स्ट और सेकिंड गेयर पे ज्यादा  जोर लगने लगा। खतरनाक अंधे मोड़ों पे हर जगह हॉर्न मारनी पड़ रही थी।करीब 20 मिनट के बाद हम लोग एक बरीढी  नामक गाँव पहुंचे।बरीढ़ी से कुछ पीछे ऊपर पहाड़ी पे तल माता का बेहद खूबसूरत मन्दिर है।

Baridhi village on the way to Kareri
इस गांव के कुछ आगे सड़क फिर दो तरफा हो रही थी।मैंने अंदाज़ा लगा कर ऊपर मौड़ की तरफ ले लिया।थोड़ी देर में हम सल्ली  गांव में पहुंच गए।यहां कुछ दुकाने भी थीं।अब धीरे-धीरे एल्पाइन जंगल शुरू हो गया।घने जंगल के मध्य बनी सड़क मेटल्ड थी।आगे जंगल से एक उतराई वाली मौड़ पे एक पुलिया दिखाई दिया।मैंने अंदाज़ा लगाया कि वहीं कहीं से करेरी झील का ट्रैक रुट आरम्भ होगा।मैं सही था।

जैसा कि अंधेरा छाने लगा था और हम लोगों ने रात्रि विश्राम के लिए कोई भी रैन-बसेरे का इंतज़ाम नहीं किया था।मुझे यह यकीन था कि करेरी गांव में होम-स्टे मिल ही जाएगा।करेरी झील से निकलने वाले उस नाले को पार करते ही कुछ आगे मुझे वहां सड़क के नीचे जंगल में एक विशाल होटल दिखाई दिया।पूरी इमारत नई नवेली दुल्हन की तरह थी।मैंने यादव और नंद को वहां नीचे जा कर नाइट-हाल्ट के लिए कमरा पूछने को कहा।कुछ देर में उन्होंने दूर से इशारा करते हुए बताया कि वहां रूम अवेलेबल हैं।

Pathania's Morya Hotel
मैं अपनी कार नीचे उस होटल के प्रांगण में ले गया।इतने में अंदर से मालिक साहब बाहर निकले।मैंने गर्मजोशी से उन्हें बधाई दी कि इतनी खूबसूरत जगह में इतना बढ़िया विशाल होटल। वे भी तुरन्त घुल-मिल गए।यह जनाब जंगलात महकमे से रिटायर थे और इन का पूरा नाम जगदीश पठानिया  था। अंडर-कंस्ट्रक्शन इनके होटल में वैसे अभी बाहर कोई साइन बोर्ड नहीं लगा था किंतु होटल का नाम इन्होंने मौर्या  रखा था।हमने उनसे कुछ इजाज़त ले कर आगे करेरी गांव तक घूमने को कहा।कार में कुछ ही दूरी पर एक मौड़ पे आ रुके जहां से नीचे करेरी गांव का पूरा दृश्य दिख रहा था।किंतु अब अंधेरा छाने की वजह से साफ नहीं दिख रहा था।गांव रोशनी से टिमटिमा रहा था।यहां एक बात गौर फरमाने वाली है कि करेरी  गांव अलग है और करेरी झील अलग है।खैर थोड़ी देेेर बाद हम सब वापिस होटल पहुँच गए।पठानीया साहब ने ऊपरी मंजिल के दो कमरे हमें दिखाए।यह बखूबी मॉडर्न गेजेट्स से परिपूर्ण कमरे थे।टी.वी.वगैरह, बाथरूम में गीज़र सब लगे हुए थे।हम ने अपने लाए हुए बीयर हलक से नीचे उतारना शुरू कर दिया।पठानिया साहब भी अपना ब्लेन्डर प्राइड का कोटा ला कर हमारे साथ गपशप लगाने बैठ गए।उन्होंने अपने बारे में बताया कि कैसे जो वो जंगलात महकमे में इसी इलाके में बतौर बी.ओ.पोस्टिड रहे और कैसे उन्होंने इस खूबसूरत जगह पे ज़मीन खरीदी।उन्होंने करेरी झील से भी ऊपर मनकयानी पास के पास के लमडल झील आदि के बारे में भी बताया।

थोड़ा बहुत खा-पी के झूमने के बाद हम लोग निचली मंज़िल के डायनिंग हाल में आए और गर्मागर्म डीनर करना शुरू कर दिया।कुक को सुबह के लिए ब्रेकफास्ट में परांठे बनाने का आदेश दे कर हम नींद को आगोश में चले गए।

Team Kareri
सुबह ठीक 5:30 पर मेरी आँख खुली।बाहर निकला तो लॉबी से लाजवाब नज़ारा दिख रहा था।जंगल से लकदक खूबसूरत पहाड़ियां,ठंडी-ठंडी हवा भी चल रही थी।मैंने सब को जगा दिया कि अब नहा धो के चलने को तैयार हो जाओ।ठीक 7 बजे बढ़िया परांठे खा कर हम ने पठानिया साहब का बिल चुकता किया और गन्तव्य को निकल पड़े।

आगे करेरी झील से बहने वाले नाले जिस का नाम न्यूण्ड  बताते हैं,के ऊपर बने पुलिया पर हम पहुंचे और वहां से दाएं हाथ दिखती पगडंडी पे उतर गए।यह ट्रेल या पगडंडी बिल्कुल स्पष्ठ है,इस लिए कोई इधर-उधर गुम होने का अंदेशा नहीं है।पेड़ों के झुरमुटों से लगती यह पगडंडी करीबन एक किलोमीटर तक ऊपर चढ़ते वक्त नाले के साथ-साथ दायीं ओर थी।अब आगे यहां से नाला पार कर के दूसरी तरफ लांघना था।इस स्पॉट पर एक लोकल नोजवान ने छोटा सा चाय-पानी का तम्बू गाड़ रखा था।
Nyund Stream which flows through Kareri Lake
न्यूण्ड नाले के कल-कल करते पानी का दृश्य बेहद खूबसूरत था,पीने में इस का पानी बेहद मीठा व नेचुरल मिनरल वाटर जैसा है।तम्बू वाले महाशय ने बताया कि बरसात के पीक मौसम में इसी नाले को वहां से पार करना इतना आसान नहीं होता। सामान्य से दिखने वाला यह नाला उस समय रौद्र रूप अख्तियार कर लेता है।जैसे कि यह नाले का स्पॉट बेहद जहीन था, इस लिए हम लोग अपने कुछ फोटो वहां लेने से नहीं चूके।
Companions in full Josh

अब हम सन 1994 में घोषित धौलाधार वाइल्ड लाइफ सेंचुरी  में घुस चुके थे।यहाँ समुद्र तल से लगभग 7 से 9 हज़ार फिट की ऊंचाइयों में पाए जाने वाले पेड़ जैसे कि  देवदार(Pine),फर(Spruce),शाहबलूत(Oaks),शंकु वृक्ष(Conifer) व बुरास  वृक्ष (Rhododendrons) के जंगलों के बीच सरपीली पगडंडियों को रौंदते हुए कुछ देर में हम एक जगह ऊपर पहुंचे जहां पे नाले में एक लोहे की  पुलिया स्थापित थी।
On the Half way trek to Kareri
शायद यह जगह नीचे आरम्भ से कुल 10.5 किलोमीटर दूर करेरी का मध्य का पड़ाव था,यानी हम आधा रास्ता क्रोस कर चुके थे। यहां एक ढाबे के बाहर मैंने ऐप्पी एप्पल जूस के पाउच खरीद कर साथियों को पिलाया।

अब आगे नाले के साथ चलते फिर चढ़ाई आरम्भ हो गई।कुछ ऊपर जा कर रास्ते में एक विशाल हिमखण्ड था।
यहां से पार करना बेहद खतरनाक था।मैं बिना कोई लाठी के सहारे इसे तुरतं पार कर गया किन्तु मेरे साथियों को पार करने में बेहद मुश्किलात का सामना करना पड़ रहा था।अनुभव की कमी,फिसलन जूते बाधा बन रहे थे।खेर मैं काफी ऊपर आ कर उन्हें निहार रहा था और उनके फिसलने पर मन ही मन हंस भी रहा था।एक मोटा पर्यटक स्टूडेंट फिसल कर जमे बर्फ में दूर नीचे जा पहुंचा।शुक्र है कि वह किसी करेवास या नाले के गहरे खड़ में नहीं गिरा वरना उसे चोट लग सकती थी।

जैसे-जैसे ऊंचाई आ रही थी,नाले के साथ बर्फ की परत पे चलना पड़ रहा था।मैंने अनुभव किया कि मेरे साथी बहुत धीरे चल रहे हैं और झील तक पहुंचने में वे बहुत समय लगाएंगे।इस लिए मैंने थोड़ी रफ्तार पकड़ ली ताकि एक घण्टे पहले पहुंच कर झील में फोटोग्राफी कर सकूं।कुछ ही दूरी पर मन्दिर की छत नज़र आने लगी।कुछ वापस उतर रहे लोगों ने बताया कि मैं झील के मुहावने पहुंच ही गया हूँ।

वाह, ऊपर पहुंच के क्या मस्त नज़ारा था।वोह झील जिसे देखने के लिए मैं गत एक वर्ष से तरस रहा था,आज बिल्कुल उस को नंगी आंखों से देख रहा था।वादियों में चारों ओर बर्फ ही बर्फ दिख रहा था जिन से रिस कर शीतल जल इस जादुई झील में मिल रहा था।झील के बहाव को रोकने के लिए नाले की ओर सीमेंट से दीवार लगाई गई है ताकि झील का पानी एकदम न बह सके।
झील के मुहाने पे टीले पे एक सुंदर मन्दिर है जो प्रभू शिव और शक्ति को समर्पित है।मन्दिर के पास पत्थरों को जोड़ कर कच्चे डेेहरे बनाये गए हैं जिस में रात्रि विश्राम के लिए श्रद्धालु रुक सकते हैं।साथ ही कुछ ढाबे भी थे,जिन्हें स्थानीय युवा रोज़ी-रोटी के लिए चला रहे हैं।

तो यह है करेरी झील जिस की समुद्र तल से कुल ऊंचाई 2934 मीटर(9626 फ़ीट) के करीब है।एक साफ पानी की झील जिसे कुमारवाह झील  के नाम से भी जानते हैं।यह झील सामने नज़र आ रहे मिनकियानी दर्रे की पहाड़ियों से निकलते पानी से बना है।यहां से चम्बा को पहुंचाने वाला यह मिनकियानी दर्रा करीबन 4 किलोमीटर ऊपर है,लेकिन सीधी खड़ी चढ़ाई दिख रही थी। मिकियानी दर्रे के अतिरिक्त दो और दर्रे जिन का नाम भलेणी व गज है,वह भी यहां से करीबन 13-15 किलोमीटर पश्चिम दिशा में है।करेरी को स्थानीय लोग माता मानते हैं।कृष्ण अष्टमी और राधा अष्टमी के दिन यहां श्रद्धालुओं का तांता लगता है।

मिनकयानी दर्रे की ऊंचाई:4250 मीटर
बलेणी दर्रे की ऊंचाई:3710 मीटर
ग़ज़ दर्रा:4140 मीटर

मिनकयानी की तरफ गर्दन उठा के देखता हूँ तो ऊपर बहुत बर्फ दिखाई दे रही है।बिल्कुल झील के साथ लगते एक ढाबा संचालक से मिकियानी दर्रे के बारे में पूछना चाहा तो साफ दिखा कि उस का इंटरस्ट मुझ में नहीं है बल्कि वह चाहता था कि मैं उस से कुछ बिस्कुट वगेरह खरीदूँ तभी वह मेरा जवाब देगा।उस के स्वार्थ और रूखे व्यवहार का आंकलन मैंने इस जादुई झील में पहुंच कर मनोवैज्ञानिक तौर पर कर लिया।अरे भई सच्चा है,यही तो महीने हैं कमाई के।अभी हम घुम्मकड़ियों से नहीं कमाएगा तो कब कमाएगा।फालतू बातों के लिए समय कहाँ था उस के पास।

Lam Dal,Thanks Google Earth
खैर नीचे होटल मौर्या के मालिक साहब पठानिया जी गत रात्रि को बता ही दिया था कि करेरी से भी ऊपर जबरदस्त नज़ारे हैं।उन्होंने जंगलात में नॉकरी के समय मिनकयानी को लाँघा था।वे बयां फरमा रहे थे कि ऊपर जोत पार करते ही बारी-बारी से 7 झीलों के दर्शन होते हैं।इन में से कुछ मुख्य झीलों के नाम हैं:-

लमडल, नागर झील,काली कुंड,ड्रा-कुण्ड,चन्द्रकूप,धाम गौरी,काली डल, नाग डल व नाग-डली वगेरह।

लम  डल धौलाधार पर्वतमाला की सबसे बड़ी मीठे पानी की झील है जो 3970 मीटर एलिवेशन पे है,यह गूगल अर्थ से साफ दिखता है। चन्द्रकूप झील (4192 मीटर)बहुत ज्यादा ऊंचाई में है। इंद्राहार  की चोटी पर पहुंचने का रास्ता भी ऊपर वहीं कहीं से है बताते हैं।
                                                                                                               

मैं समझ गया कि ऊपर धौलाधार की इन उच्च चोटियों पे पहुंच के नज़ारा कैसा दिखता होगा।एक तरफ कांगड़ा जिला का मैदानी इलाका नज़र आएगा,दूसरी ओर चम्बा के ढेरों गगनचुम्बी पर्वतमालाएँ जो बड़ा-भंगाल से लाहौल तक पीर-पंजाल रेंज के रूप में फैले हैं।लेकिन झील वाले उच्च वीरान एरिया में जाने के लिए दमखम वाले बन्दे चाहिए।ज्यादा समय चाहिए, पोर्टर चाहिए,तंबू वगेरह चाहिए और हाई-ऐयल्टीच्यूड को सहने की क्षमता भी चाहिए।यकीनन उधर से ट्रेक करके चम्बा के चुआड़ी या गहरा में पहुंचा जा सकता है।

खैर इस वक्त समय हो चुका था दिन के 12:30,मैंने झील के नज़ारों को कैमरे में कैद करने शुरू कर दिया।झील के उस पार भी जाना चाहता था किन्तु त्याग दिया क्योंकि चारों ओर बर्फ की चादर बिछी थी।करीब 45 मिन्ट्स के बाद मेरी टीम के मेम्बर भी थकते चलते झील में पहुंच ही गए।मैंने उन्हें अपना रकसैक पकड़ा दिया और झील के उस किनारे की तरफ चल दिया जिधर गद्दियों के ट्रांज़िट चबूतरे बने हुए थे। उधर को जाना काफी मुश्किल था क्योंकि ढलान में बर्फ थी और फिसल कर सीधे झील में गिर सकते थे।

दूसरी ओर से झील बेहद लाजवाब दिख रही थी।मैं वीरान पड़े गद्दियों के चबूतरों की तरफ गया वहां कोई नहीं था क्योंकि अभी मई के महीने ऊपरी इलाकों में ज्यादा बर्फ होने के चलते गद्दियों का मूवमेंट नहीं था।यहां से कैमरे द्वारा झील का वीडियो बनाने के चक्कर में बैटरी खत्म हो गयी।इस तरह फोटोग्राफी मेरी यहीं बंद हो गयी।

खैर वापिस मन्दिर पे पहुंचा।जैसा कि धौलाधार की यह ऊँचे स्पॉट मौसम के अचानक मूड परिवर्तन के लिए बदनाम है,ठीक वैसे ही अचानक ऊपर मिनकियानी दर्रे तथा आसमान में बादलों की गड़गड़ाहट शुरू हो गयी थी।घनघोर घटा के बीच छिट-पुट बारिश भी शुरू हो गई।मेरी टीम ने साथ लाए मैगी को पकाने का आर्डर एक ढाबे वाले को दिया था।गर्मागर्म मैगी खा के असीम तुष्टि महसूस हुई।इतने में तेज बारिश शुरू हो गई,इसलिए सब लोग सैलानियों के लिए बने पत्थरों के डेहरों में दुबक गए।कुछ युवा लड़के-लड़कियां जो लवली यूनिवर्सटी जलंधर से थे,वे भी अंदर घुस गए।

Nand Kishor,Prabhat,Me and Surendra Yadav
मैंने अपना माउथ-आर्गन निकाला और एक पुराने गाने की धुन छोड़ दी।कुछ लकड़ियां इकट्ठी कर के बोन-फायर भी किया गया।अब शुरू हो गया गीत-संगीत का कार्यक्रम।यूनिवर्सटी के लड़के मजेदार नोन-स्टोप गाना गाने लगे।हम सब उनके साथ शामिल हो गए।जबरदस्त माहौल बन गया था।इतने में बारिश थम गई।मैंने घड़ी देखी तो इस वक्त समय हो रहा था 2:45 दोपहर के।मैंने इशारों में अपनी टीम को प्रस्थान करने के लिए कहा।वहां ढाबे वाले ने बताया यदि हम वहां रुकना चाहते हैं तो प्रतिव्यक्ति 800 रुपए में रात्रि विश्राम के लिए टेंट उपलब्ध हैं।जैसा कि हमारा वहां ठहरने का प्लान नहीं था,इस लिए हम सभी अनजान युवाओं को अलविदा कह कर वापस नीचे को चल दिए।

चूंकि मेरे टीम मेम्बरान को ऊपर आते वक्त बर्फीले  एवलांच में दिक्कत हुई थी,तो यह निर्णय लिया गया कि नीचे उतरते समय नियुण्ड नाले के दूसरी तरफ से उतरा जाए।नाले के दूसरी तरफ जाना वैसे आसान नहीं था,किन्तु हम ने पार कर ही लिया।दूसरी तरफ गद्दियों की हल्की पगडंडिया बनीं थी,उसे फॉलो कर के करीब 1 किलोमीटर नीचे आ कर फिर से दूसरी तरफ एक पोइन्ट से सभी पार हो कर फिर मेन ट्रेक रूट पे पहुंच गए।इस तरह करीब 4:30 बजे हम लोग फिर से होटल मौर्या पहुंचे जहां मेरी कार खड़ी थी।यहां होटल के मालिक पठानिया जी और उनके बेटे मिठू उर्फ अभिनय पठानिया  को अलविदा कर  हम लोग वापिस शाहपुर को रवाना हुए।
करीब शाम  5:30 पे  हम लोग मटौर-पठानकोट हाइवे पर पहुंचे।वहां नन्द किशोर को अलविदा कहा और बाकी के हम तीन लोग नूरपुर-जस्सूर को निकल पड़े।ठीक 6:45 सन्ध्या की बेला में हम लोग वापस जस्सूर पहुंचे और अपने-अपने क्वार्ट्ज़ को एक मीठी याद लिए थक कर सो गए।हमारी दो दिन की अवकाश फालतू नहीं गई बल्कि करेरी झील की यात्रा ने हमारा दिन लाजवाब बना दिया।

Sunday, June 30, 2019

बठाढ़ से बाघा-सराहन बायां बशलेऊ जोत(वर्ष 2019)

वर्ष 2019 और माह अप्रैल।सोशल मीडिया के मकड़  मायाजाल वट्ससऐप रूपी तंत्र में एक ग्रुप का मेम्बरान हूँ जिस में जोखिम लेने वाले व सरफिरे से दिखने वाले कुछ  दुःसाहसी व घुमक्कड़ी लोगों का जमावड़ा है जो अपने को खतरनाक जांबाज़ मानते हैं।उन पागलों में शायद मेरा भी नाम शूमार हो। इस ग्रुप में मैंने गलती से कुल्लू के तीर्थन घाटी के बठाढ़ से लगते ट्रेक रुट बशलेऊ जोत का ब्याने जिक्र फरमाया। फिर क्या था देखा-देखी में बशलेऊ प्रोग्राम हो गया मेच्योर।

                      दरअसल मेरा एक कज़िन जो कि बंजार के जीभी नामक हेवनली स्थली से बिलोंग करता है।उस की मकबूलियत में मैंने बंजार घाटी के कई एक्सकर्शन भी मुक्कमल किए हैं। उस के मेमेमोरी स्टोर हाउस के फलेश बेक के गनीमत के अनुसार जब वह नोवीं में इल्म हासिल कर रहा था तो अपने गांव के देवता के साथ इस बशलेऊ जोत से बागा सराहन को फतह हुआ था।         
   
उस ने यह बताया था कि बशलेऊ को लांघना बेहद आसान है।उस के हाले-बशलेऊ-ब्यानात से दिल में एक तमन्ना जाग गयी कि हम भी कभी इधर से जाएंगे ही  जाएंगे। वैसे भी इसी साल 2019 के मार्च महीने में मैं उस के साथ बंजार के शौझा फिर बठाढ़ तक रेकी कर आया था और ठान लिया था कि इस वर्ष पक्का इस जोत की एक्सकर्शन पर अवश्य निकलना ही है।

तो उस वट्सएप ग्रुप के कुछ वरिष्ठ उम्र के मेम्बरान जो खूब घूमने-फिरने की इच्छा रखते हैं,ने मुझे बारम्बार याद दिलाना शुरू कर दिया कि जून के माह में बशलेऊ जाना ही जाना है।पहले मई माह में जाने का कार्यक्रम था किन्तु यह माह बेहद ही व्यस्तता से भरा था क्योंकि इस वर्ष देश की संसद के लोकसभा सदन के लिए राष्ट्रीय चुनाव होने थे।चुनाव की तिथि भी निर्धारित थी 19 मई और परिणाम आने थे 23 मई 2019 को।एक पब्लिक सेक्टर के उपक्रम का मुलाज़िम होने के नाते यह यकीनन था कि चुनाव में ड्यूटी लगनी ही लगनी थी।वही हुआ बतौर पर्यवेक्षक कांगड़ा के मटौर से लगते धीरा तहसील के पालमपुर-सुजानपुर टिहरा राज्य मार्ग से लगते एक गांव में चुनाव से एक दिन पूर्व जाना पड़ा।यह तथ्य मैंने अपने ग्रुप के मेम्बरान को बता दिया था कि बशलेऊ जोत को जाना जून में ही बेहतर होगा।वैसे भी वर्ष 2019 के सर्दियों में भारी हिमपात के चलते ऊंंचाइयों में बहुत बर्फ होने का अंदेशा था।

खैर चुनाव के उपरांत 26 मई से 31 मई तक गुरुग्राम में बने विभागीय इंस्टिट्यूट ऑफ फ़ूड सिक्योरटी में आयोजित की जा रही एक प्रशिक्षण में भी मैंने जाना था।इस लिए बशलेऊ हाईकिंग के चक्कर में व दिल्ली आने-जाने में लगने वाले समय को बचाने के लिए मैंने पहले ही योजनवत एडवांस में कांगड़ा के गगल एयरपोर्ट से दिल्ली व वापस आने-जाने का हवाई टिकट भी बुक कर लिया था।मोदी काल में हवाई यात्रा ऑन-लाइन हैं और सस्ती दरों पे भी।

खैर इस बीच ट्रेनिंग के दौरान दिल्ली में एक दुखद समाचार सुनने को मिला।बंजार वाले कज़िन के पिता जी यानी मेरे सगे चाचा जी का अचानक बीमारी की वजह से दिनांक 26 मई के दोपहर कुल्लू अस्पताल में देहांत हो गया।प्रशिक्षण में होने की वजह से उनके दाहसंस्कार में भी नहीं जा पाया। कांगड़ा वापस पहुंचते ही 2 दिन जसूर में वापिस अपने दफ्तर में लगा कर इस दुख की घड़ी में अपने चचेरे भ्राताओं से संवेदनाएं प्रकट करने व मिलने हेेतू अवकाश ले कर कुल्लू निकल गया।वैसे भी बीच में 5 जून को ईद की राजकीय अवकाश भी थी। दिवंगत चाचा जी की 13वीं 7 जून को कुल्लू के बदाह गोम्पा में था। उक्त दिन सभी नज़दीकी रिश्तेदार वहां मिले।

Sh.NG Bodh Sir
इस बीच अब 2 राजकीय अवकाश थे।जांबाज़ लोगों के वट्सऐप ग्रुप के एक खास अजीज मेम्बरान आदरणीय नवांग बोध जी,जिन्हें लोग NG Trekker के नाम से जानते हैं,ने फोन द्वारा मुझे कुछ बशलेऊ जाने का हिंट दिया।मैंने उन्हें अवगत किया कि शायद इस दुख की घड़ी में वहां मेरा जाना क्या ठीक रहेगा।किन्तु मन ही मन सोचा कि बारम्बार ऐसा मौका नहीं मिलता।ऐन.जी.साहब ने कुछ बशलेऊ जाने को तैयार कुछ अन्य वरिष्ठ पूर्व अधिकारियों के नाम भी मुझ से चन्स्पा किए।मैंने अंतिम समय में अगले दिन उन सब के साथ बशलेऊ जोत जाने की हामी भर दी।

दिनांक 08.06.2018 को निर्धारित समय पे मुझे ठीक 12:30 बजे दोपहर वरिष्ठ लोगों ने कुल्लू में पिक अप किया।जिस वाहन में जाना था यह टेक्सी जायलो थी।गाड़ी में विराजमान सभी सीनियर जनों को दुआ-सलाम कर के मैं भी बैठ गया।भून्तर चौक में एक अन्य वरिष्ठ साथी को भी पिक अप कर के टेक्सी के उस्ताद अनिल नामक लोकल नोजवान ने अब सब के रकसैक टेक्सी के छत पर फिक्स कर दिए।

अब चालक के अतिरिक्त कुल 7 जनें थे।यह थे:-

1).श्री ऐन.जी.बौद्ध(हिमाचल बिजली बोर्ड से रिटायर सीनियर इंजीनियर),
2).श्री गुलाब चंद गेलौंग(इंश्योरेंस सेक्टर से रिटायर मुख्य महा-प्रबन्धक),
3)श्री रंजीत ठाकुर(राष्ट्रीय ऑर्डिनेंस फेक्ट्री से रिटायर एक वरिष्ठ अधिकारी)
4).श्री प्रेम सिंह थमस(स्टेट बैंक आफ इंडिया से रिटायर ऐ. जी.एम)
5).श्री टशी छेरिंग(रिटायर सीनियर ब्रांच मैनेजर इंडीयन ओवरसीज बैंक)
6).श्री अजेय कुमार(प्रबन्धक, इंडस्ट्रीज़ विभाग,हिमाचल सरकार, मंडी)

और सातवां मैं।
Team Bashleu in Mungla


अब खूब हंसी मजाक और बातचीत के साथ हम लक्ष्य की तरफ कूच करने निकल पड़े।कुल्लू के भून्तर हवाई अड्डे से आऊट सुरंग तक की कुल दूरी 19 किलोमीटर है।अब आऊट सुरंग के दक्षिणी छोर से बंजार और सैंज घाटी को जोड़ने वाली सड़क को पकड़ना पड़ता है। यहां सुरंग से बंजार की कुल दूरी 25 कीलोमीटर है। बंजार से तीर्थन घाटी का गुशैणी 10 किलोमीटर दूर है। गुशैणी से हमारा अंतिम पड़ाव बठाढ़  9 किलोमीटर है। कुल्लू से कुल दूरी थी लगभग 80 किलोमीटर। ओट टनल से कुछ ही दूरी पर लारजी से पुल पार कर के बंजार को अलग रास्ता पकड़ना पड़ता है।यह सड़क है ओट से सैंज,हाई-वे नम्बर 305

बंजार बाजार से कुछ पहले एक खुंदन नामक मौड़ है,वहां से तीर्थन नदी के साथ आगे हमारी गाड़ी चल पड़ी। बातचीत करते-करते पता ही नहीं चला कि कब हम तीर्थन घाटी के मूँगला में पहुंच गए।तीर्थन घाटी वह घाटी जो मशहूर ग्रेट हिमालयन नेशनल पार्क के लिए विश्व विख्यात है जो कुल 765 वर्ग किलोमीटर में फैला है।इस घाटी को वर्ष 2014 में सँयुक्त राष्ट्र संघ के      UNESCO ने विश्व धरोहर का दर्जा दिया था।इस खूबसूरत घाटी का समुद्रतल से औसतन एलिवेशन 1600 मीटर के करीब है।     

तीर्थन घाटी की जब बात आती है तो सेराज घाटी के 5 कोठी से चुने गए बंजार के प्रथम विधायक स्वर्गीय श्री दिले राम शवाब की बात न करें तो कुछ अधुरा रहेगा। वह हिमाचल प्रदेश के प्रथम मुख्यमंत्री व हिमाचल निर्माता डा. यशवंत सिंह परमार की सरकार में दो बार(1967-72) विधायक रहे। वह एक महान वक़्ता,लेखक व पत्रकार भी थे।बताया जाता है कि      जब विधान सभा में वह बोलते थे तो सदन में खामोशी छा जाती थी।
Sh.Dile Ram Shavab
उन कड़क विधायक को सब तसब्बुर से उन्हें सुनते थे।जब पिछली सदी के 90 के दशक में हिमाचल में विद्युत दोहन की बात चली तो तीर्थन घाटी के नालों में भी विद्युत की अपार संभावनाएं देखी गयी।किन्तु शवाब साहब ने हर सूरत में कोई भी हाइडल प्रोजेक्ट को वहां लगाने से साफ इनकार कर दिया।उन्होंने इस के लिए जनता को संगठित कर के घोर विरोध किया और हाई कोर्ट में जनहित याचिका भी डाली।उनका यह प्रयोजन सफल रहा और तीर्थन घाटी बच गया।इसलिए तीर्थन घाटी की सौम्यता व सुदंरता को संजोय रखने में दिले राम शवाब जी का बहुत बड़ा योगदान रहा है।वर्ष 2018 में जब वह स्वर्ग सिधारे तो उनकी उम्र 90 से ऊपर थी।
                 

Bashleu Pass,Thanks Google Earth
शवाब साहब के तीर्थन घाटी के घने जंगलों का इलाका 200 के करीब जंगली पशु-पक्षियों की प्रजातियों या जैविक विविधता के लिए प्रसिद्ध है। विशेषकर मोनाल,जाजूराणा व वेस्टर्न ट्रागोपन पक्षियों की वेरायटी के लिए यह बहुत प्रसिद्ध है।इन पशु-पक्षियों को करीब से निहारने के लिए बहुत समय चाहिए,जो इस समय हमारे पास इस समय था नहीं। इस में कोई अतिशयोक्ति नहीं कि यहां ढेरों औषधीय जड़ी-बूटियों से भी जंगल भरे पड़े हैं जिन्हें बोटोनिकल एक्सपर्ट ही बयां कर सकते हैं। घाटी में बहती स्वछ पवित्र नदी का नाम तीर्थन है यानि तीर्थ करने के स्वरूप,जिसका उद्गम स्थल हँसकुण्ड नामक ग्लेशियर है। यह स्वछ नदी रेनबो ट्राउट मछली के लिए मशहूर है।यहां वर्ष में एक बार एंगलिंग प्रतियोगिता भी आयोजित की जाती है। हिमाचल सरकार के अंतर्गत मछली फार्म भी स्थापित हैं।कई स्थानीय लोगों ने भी अपने व्यक्तिगत मछली फार्म बना रखे हैं।

Bathad
तीर्थन घाटी के ग्रेट हिमालयन नेशनल पार्क को दो भागों में बांटा गया है।पहला लो-ज़ोन और दूसरा इको-ज़ोन।लो-ज़ोन में घाटी के गांव बसे हैं या जहां आबादी है।लो-ज़ोन में ही केम्प वगेरह स्थापित हैं।इको-ज़ोन में वन्य प्राणी व जैव सम्पदा है।यहां घने जंगल हैं और बेहद खूबसूरत झरने व जल स्त्रोत हैं।बेहद जहीन ट्रेक रुट भी इको-ज़ोन में हैं। तीर्थन घाटी के कुछ उच्च गांव बेहद ऊंचाइयों में बसे हैं,जैसे कि शरची,जमाला, बन्दला,रोला,पेखड़ी, बुंगा,सौर,शिल्ही,      मशियार,बशीर,कंग-गलु,ठारी, कलवाड़ी व श्री कोट।गुशैणी से एक घाटी ओर अंदर को जाती है जो रोला तक है।यह भी ट्रेकर्ज़ के लिए जन्नत से कम नहीं है।खैर थोड़ा बहुत तीर्थन घाटी को बयां कर के अब आगे बढ़ते हैं।
     
Station Mungla
अब समय था 2:30 बजे दोपहर।हम लोगों की टेक्सी मूँगला नामक जगह पहुंची। यहां मेरे जीभी वाले कज़िन का ससुराल है और उसके साले साहब जिन का नाम यज्ञ चंद है,का भगवती नामक होम-स्टे है।हम ने लंच यहीं करना था।मैंने पहले ही यज्ञ चंद को इस बारे में इतलाह कर दिया था।लाजवाब लंच बना हुआ था।मटन, चावल,घी से सटी रोटियां,लिंगड़ी का आचार वगैरह।सब ने खाने की खूब तारीफ की।लाहुल वासी टीम में हों ,मस्त जगह हो और पेग-शेग न चले,यह हो ही नहीं सकता।आउट में खरीदे वोडका और बिकार्डी स्पेशल की बोतल खोल कर कुछ पैग बना कर गटके गए।

अब करीबन 3:30 बजे हम अब मूँगला से बठाढ़ को निकल पड़े।एक पुलिया पार करते ही बरशेणी नामक जगह पहुंचे अब हम तीर्थन नदी के दूसरी ओर थे।करीब 4:20 पे हम अंतिम पोइन्ट बठाढ़ पहुंचे।यहां पे जिस होम-स्टे में ठहरने का इन्तेज़ाम किया गया था, उस के मालिक श्री ठावे राम जी बेसब्री से हमारा इन्तेज़ार करते दिखे।

Home Stay at Bathad
ठावे राम की आवभगत देखने लायक थी।बठाढ़ बस अड्डे के समीप बना उनका अपना घर नामक होम-स्टे बाहर से देखने में एक अधूरा मकान से दिख रहा था।सामने से देखने पर पूरे मंज़िलवार लकड़ियों की चौखटें दिखाई दे रहीं थी किन्तु शीशा एक भी नहीं लगा था।जब आंधी-तूफान चलता होगा तो सारी धूल मिट्टी अंदर घुस जाती होगी।अरे पर यह तो बेहद खूबसूरत तीर्थन वैली है,भला यहां पे कैसे धूल मिट्टी की आंधी चल सकती है।अंदर घुसने पे कमरे सेमी-मॉडर्न पहाड़ी लुक में सजे थे।बाथरूम में टाइलें लगी थीं और अंग्रेज़ी फ्लश भी लगे थे।
Bathad Water Fall
ठावे राम जी चाय पिलाने के बाद लोकल में कुछ दिखाने के लिए हमें एक नाले की तरफ ले गए जो लोकल स्कूल के कुछ आगे था।थोड़ी दूरी पर एक सुंदर बहते नाले के ऊपर बने पुलिया को पार कर के वह हमें पुल के नीचे ले गए।अरे वाह।क्या दृश्य था उसी नाले का एक नेचुरल वाटर फाल था जिस के पानी के ठंडे छींटे हमारे शरीर को छू रही थी।ऐसी मनोरम जगह में सभी मेम्बरान बेहद ताज़गी महसूस कर रहे थे और खुशी सब के चेहरे से साफ झलक रही थी।

अब सन्ध्या की बेला में ठावे राम जी ने अपने होम स्टे में बेहद लज़ीज़ रेनबो ट्राउट मच्छी व मनसन्दीदा खान-पान पेश किया।रात्रि के 11 बजे तक खूब हंसी-मजाक व गप-शप मार कर व वोडका व बेकार्डी रम की बोतलें गटक कर सभी चिर निद्रा में चले गए।

सुबह सबसे पहले मैं और नवांग अछो जी करीबन 4:30 पे जागे।वे कुछ बुद्ध मन्त्र पढ़ रहे थे और योग भी कर रहे थे।मैंने भी लगे हाथ कपाल भाती और अनुलोम-विलोम किया।बाहर बठाढ़ का दृश्य बड़ा मनोरम था। मैंने बाहर जा कर कुछ घेड़ी मारी और कुछ एक्सरसाइज़ भी की।थोड़ी देर में सभी जाग चुके थे।
6:30 बजे हम ने ब्रेक फ़ास्ट किया और अब ठीक 7 बजे हम बशलेऊ जोत की एक्सकर्शन पे निकल पड़े।
प्रधान ठावे राम जी भी अपने बेटे के साथ बतौर पोर्टर व गाईड ऊपर जोत तक निकल पड़े।उन्होंने अपने बैग में खाने-पीने की सभी आवश्यक चीजें रखीं थीं।हंसी मजाक करते,गाना गाते सभी मस्ती में सराबोर थे।अब हम बठाढ़ से करीबन 3 किलोमीटर ऊपर आ गए थे,जहाँ हमने चाय के लिए प्रथम विश्राम किया।ऊपर खेतों-खलियानों के बीच कुछ घर भी थे यानी ऊपर तक आबादी बसी थी।

करीब 9 बजे जंगल के बीच एक दूसरे पड़ाव पे हम फिर रुके।ठावे राम जी ने बताया कि इस जगह का नाम क्वार्टर है क्योंकि आऊटर सेराज के प्रवास के दौरान यहां से आते-जाते समय कुल्लू की रानी इस जगह पर विश्राम करती थी।
A spot in Jungle known as Quarter
यह जगह जंगली अखरोटों व खनोड़ के वृक्षों से भरी पड़ी थी।यहां हम ने आदरणीय टशी जी द्वारा लाए गए लुगड़ी के लुग्दी यानि बागपिणी को चखा जो इस वक्त थकान में बेहद ही स्वादिष्ठ लग रहा था।

Nag Fanni
जंगल में ढेरों जड़ी-बूटियों के बीच सबसे ज्यादा नाग-फनी नामक पौधा बहुत ज्यादा मात्रा में दिख रहा था।इस को देखने से ऐसे लगता है मानो यह स्वयम भी सांप ही हो।बोटोनिकल भाषा में इसे शार्ट कट में हिमालयन कोबरा लिली और विस्तार में Arisaema Speciosum भी कहते हैं जो समुद्र तल से 2500 से 3000 मीटर के एलिवेशन पर पाया जाता है।
अब अल्पाइन के घने जंगलों में जहाँ बड़े-बड़े वृक्ष गिर कर सड़ चुके थे,को लाँघते-फांदते हम लोग ऊपर एक और खुले पड़ाव पे पहुंचे जहां बैठने लायक घास थी। यहां 15 मिनट विश्राम करने के उपरांत चल पड़े।अब लग रहा था कि बशलेऊ दर्रा काफी करीब है।तीर्थन घाटी की तरफ के पहाड़ अब दिख रहे थे जो अभी तक जंगलों की वजह से नहीं नज़र आ रहे थे।

रास्ते में भैंसों के गोबर से प्रतीत हो रहा था कि आज-पास ही गुज्जर हैं किन्तु कुछ ऊंचाई पर पहुंचने पर ढेरों भैंसों के झुंड दिखाई दिया।भैंसे हमें ऐसे निहार रहीं थी मानो हम कोई दुश्मन उनके इलाके में घुस आए हों।
ठीक 12:30 बजे हम बिल्कुल बशलेऊ दर्रे के साथ लगते एक विशाल मैदाननुमा जगह पहुंच गए यानी डेस्टिनेशन को अब एचीव कर लिया गया था।
यह मैदान एक विशाल गोल्फ-कोर्स की तरह दिख रहा था।ऊपर पश्चिमी दिशा की ओर एक गुम्बदनुमा पर्वत खड़ा था जो अदभुत दिख रहा था।मैदान में गुज्जरों के कई टेन्ट्स नज़र आ रहे थे। भैंसों के अलावा गायें भी चर रही थीं।गुज्जरों का एक कुत्ता हमारे पास मित्रता का संदेश ले कर आया और पास बैठ गया।ट्रेक्क़र्ज़ भाई लोग सभी थकान मिटाने के लिए मैदान के कुल्लुई छोर वाली तरफ दिखते बड़े-बड़े चट्टानों की ओट में बैठ गए।

यहां जोत में मृत जानवरों के ढेरों कंकाल,हड्डियां व सींग वगेरह बिखरे पड़े थे।इन्हीं हड्डियों से रात्रि को कुल्लू घाटी का मशहूर गिठु राक्षस जागृत होता है।गिठु राक्षस का मतलब है अग्नि के गठे जो अलग-अलग पीसेज़ में जलते हैं।यह राक्षस रात को दूर पहाड़ी पे नज़र आते हैं और तेज़ी से इधर-उधर भागते भी दिखते हैं।यह जलते और बुझते नज़र आते हैं।
वास्तव में इन हड्डियां यूरिया,फास्फोरस होता है।जब इन ऊंची पहाड़ियों में तेज हवा चलती है तो जोरदार ठोकर से इन ज्वलनशील तत्वों में कुदरती तौर पर अग्नि प्रज्वलित होती है।हवा से यह हड्डियां इधर-उधर बिखर कर जलती बुझती  हैं। गिठु राक्षस वास्तव में यही है।

खैर अब जोत के मैदान में प्रधान ठेवा राम जी ने तुरन्त बिखरी लकड़ियों को एकत्रित किया और एक चट्टान की ओट में आग जला दी।
उनका मकसद पैक कर के लाई रोटियों को गरम कर के हमें लंच करवाना था।
A Gujjar Bhai
एक गुज्जर भाई तुरन्त अपने तम्बू से मजेदार चाय बना कर लाया।इसी बीच लुगड़ी की बोतल निकाली गई और उसे गटका गया,फिर दौर शुरू हुआ पीने का।इतनी मनोरम जगह और वहां बैठ के सूरा न पिया जाए तो समझो यात्रा अधूरी है।वोडका और बेकार्डी पी के सब मस्त थे।गीत संगीत के साथ बशलेऊ कि सरजमीं पर टीम के कुछ कदरदान ने झूम कर नृत्य भी किया।

Point Zero,Bashleu Pass
अब समय हो चला था दोपहर के 1:30,मस्त जगह की मस्ती से सराबोर,सभी जन आगे बढ़े।हल्की सी ढलान को चढ़ते हुए अब हम इस मैदान के दूसरी छोर पर पहुंच गए जहां एक छोटे से टीले पे एक प्राकृतिक गेटनुमा रास्ता बना था यानि हम इस पोइन्ट से अब तीर्थन घाटी की वादियों को अलविदा कर के आऊटर सेराज के बाघा सराहन की घाटी में कदम रखने वाले थे। इस टीले पे तेज हवा चल रही थी और बायीं तरफ झंडे वगैरह गाढ़े गए थे।ठावे राम जी के अनुसार इसे दोनों और घाटी के लोग बेहद पवित्र मानते हैं और माना जाता है कि यहां जोगनियों का वास है।हम ने  वहां पहुंच कर कुछ जयकारे लगाए।

                    
 तो यह था बशलेऊ दर्रा। इस की समुद्रतल से ऊंचाई है 3277 मीटर या 10752 फ़ीट ऊंचा। यानी लगभग 11000 फ़ीट ऊंची जगह है यह।जलोड़ी जोत से यह कुछ ऊंचा है।जलोड़ी जोत की ऊंचाई 3120 मीटर है।  बशलेऊ  दर्रे के दोनों ओर पर्वतों की रेंज है।एक तरफ लंभरी रिज की श्रृंखला है तो दूसरी ओर श्रीखण्ड की तरफ बढ़ने वाली पर्वतमालाएं हैं।पहाड़ियों के ऊपरी मुख गंजे हैं किंतु वहीं कुछ नीचे घने जंगल हैं।इस दर्रे के बिल्कुल ऊपर हवाई जहाज का रूट है।शायद लदाख से दिल्ली वाले जहाज उड़ते हों।हमें भी नज़दीक से ऊपर जहाज के उड़ने की आवाज़ सुनाई दी।

Our trail route
यह दर्रा प्राचीन काल से व्यापारियों,पशु-पालकों और राहगीरों के लिए बेहद सुलभ रहा है।इस मार्ग से ही हो कर ही व्यापारी लोग किन्नौर से होते हुए तिब्बत से व्यापार करते थे। यदि बठाढ़ से लगभग 20-25 किलोमीटर सड़क का निर्माण हो जाए तो तुरन्त बाह्य सेराज के इस क्षेत्र को बंजार घाटी से जोड़ा जा सकता है और जल्दी पहुंचा जा सकता है अन्यथा यहां पहुंचने के लिए जलोड़ी जोत व अन्नी होते हुए निरमण्ड से लगभग पूरा दिन लग जाता है।

मैंने रास्ते में ठावे राम जी के पुत्र से पूछा कि बशलेऊ से क्या अभिप्रायः है।उसने बेहद स्टीक जवाब दिया।उसके अनुसार स्थानीय सेराजी बोली में इस शब्द का यदि सन्धिविच्छेद करें तो वह बनता है-"बेशा" और "लेऊ"बेशा मतलब की बैठ जाएं । लेऊ का अर्थ था कर लेना था हो जाना।यानी इस जगह से तातपर्य यह था कि दोनों ओर से इधर-उधर दर्रे को क्रोस करते समय यहां थकान मिटाने के लिए कुछ देर बैठ जाना।

कुछ जयकारे मार कर हम ने अब आऊटर सेराज की इस घाटी को कदम रखा।अब नीचे को उतराई थी।कुछ जगह स्पाट ढलान है तो कुछ जगह आसान रास्ता है।दायीं और ढलान में हरी घास से लकदक चारागाह है जो बेहद खूबसूरत दिखता है।बीच में एक जगह पानी का स्त्रोत भी है जो राह में बह रहा था।यहां से बाघा सराहन मात्र 5 किलोमीटर होगा किन्तु एक जगह जंगल में रास्ता बेहद ढ़लान नुमा है जहाँ से फिसल कर गिर भी सकते हैं।चीड़ और कायल के पेड़ों की सूईनुमा बिखरी सूढ़ी काफी फिसलनदार थी जिस पे कदम सावधानी से रखना पड़ता है।

Baga-Sarahan
करीबन एक किलोमीटर नीचे एक मैदामनुमा जगह पे विश्राम कर के पुनः टीम आगे बढ़ी।अब कुछ जगह से बाघा-सराहन का विशाल मैदान दिख रहा था।रामपुर से लगते वेली के ऊपरी इलाकों का दूर से विंगम दृश्य नज़र आ रहा था।सेब के बागान दूर-दूर तक दिख रहे थे और उनमें ओलों से बचने के लिए लगाई गई जालियां भी दिख रही थी।निरमण्ड यहां से नहीं दिखता।

अन्तिम उतराई में रास्ता पथरों से भरा पड़ा था।यह पत्थर जहां चलते वक्त रुकावट बन रहे थे,वहीं फिसलने से रोकने के लिए नेचुरल स्पीडब्रेकर का कार्य भी कर रहे थे।पहाड़ी से गिरते पानी का एक विशाल नाला अब गड़-गड़ कर के बह रहा था जो जंगल में बेहद जहीन नज़र आ रहा था।कुछ ऊपर उतरते समय बायीं ओर एक वहुत बड़ा वाटर फाल भी था,जिसे हमने सिर्फ दूर से निहारा।अब नाले के ऊपर बने एक लोहे की पुलिया को पार कर के हम लगभग बाघा-सराहन की धरा पर पहुंच ही गए।

अब समय था शाम के 4:30 बजे।पर्वत के आंगन में विशाल मैदान होने की पुष्टि पहले ही हो रही थी क्योंकि ऊपर ढलान में बाग-बगीचों के मध्य बने रास्तों से चलते हुए हमें पहले ही बहुत समतल इलाका होने का अहसास हो रहा था।जो नाला ऊपर से बह कर आ रहा था वह मैदान के किनारे से होते हुए कुहल के रूप में आगे बह रही थी।मैदान के किनारे इक्के-दुक्के होम-स्टे बने हुए थे।

तो आखिर हम अपने डेस्टिनेशन बाघा सराहन आखिर पहुंच ही गए।चलते-रुकते-थकते-आराम करते सुबह बठाढ़ से 7 बजे चले थे और शाम 4:30 बजे गन्तव्य बाघा सराहन पहुंच ही गए।यदि कोई अनुभवी व्यक्ति बठाढ़ से बाघा सराहन एक एवरेज से चले तो उसे मात्र 5 घण्टे लग सकते हैं।3 घण्टे ऊपर जोत पहुंचने में और 2 घण्टे उतरने में।हमारी टीम को 5 घण्टे की बजाए करीबन 10 घण्टे लग गए।


बाघा सराहन में ठावे राम जी ने किसी वकील के होम-स्टे में हमारे रहने का इंतज़ाम कर रखा था।यह होम स्टे मैदान के साथ लगते सरकारी स्कूल से कुछ आगे बना था।यहां से कुछ ही दूरी पर बाघा-सराहन का मूल विशाल गांव है।वकील साहब खुद ही आव-भगत में लगे रहे।इंतज़मात ठीक था,कमरे भी ठीक-ठाक थे।शाम को गांव की घेड़ी मार कर सभी लोग वापिस होम-स्टे पहुंच गए।

रात्रि भोज से पहले हल्का-फुल्का ड्रिंक्स लिया गया और हंसी-मजाक का दौर चलता रहा।फिर डीनर करने के उपरांत सब थकान मिटाने के लिए चिर-निद्रा में चले गए।

Jalori Pass
सुबह ठीक 8 बजे आदरणीय गेलौंग सर के सौजन्य से एक महिंद्रा मरिज़्जु टेक्सी को रामपुर से मंगाया गया।उस में सवार हो कर हम सब बागी पुल, निरमण्ड से होते हुए रामपुर से कुछ पीछे सतलुज पे बने प्रोजेक्ट की पुलिया पार कर दूसरी तरफ रामपुर-शिमला हाई-वे  नम्बर 5 पे पहुंचे।फिर सेंज से होते हुए लहुरी,अन्नी व जलोड़ी जोत को पार कर करीबन 3 बजे ग्याघि पहुंचे।वहां हम ने एक ढाबे में लंच किया।


अंततः 5 बजे हम वापिस कुल्लू पहुंच गए।अपने-अपने गंतव्य में पहुंचने पर बारी-बारी गाड़ी से उतर कर हम सब ने एक दूसरे से विदाई ली।इस तरह यह बठाढ़ से बागा-सराहन बायां बशलेऊ जोत ट्रेक्किंग बेहद रोमांचक और यादगार रहा।